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________________ [२.५] वीतरागता १७३ हम अंतिम स्टेशन पर आ गए हैं। किसी को कहने की ज़रूरत नहीं है। आप मुझे कह सकते हैं ! किसी और को कहेंगे तो लोग क्या कहेंगे? प्रश्नकर्ता : मूर्ख कहेंगे। दादाश्री : उन्हें कभी भी नहीं कह सकते। बाकी यह अकषाय पद तो भगवान पद है। जो वीतराग और निर्भय हो जाए, वह भगवान प्रश्नकर्ता : श्री कृष्ण को भगवान कहते हैं और फिर वापस यह भी कहते हैं कि आपके अंदर भगवान हैं तो दादा की दृष्टि से यथार्थ रूप से भगवान का अर्थ क्या समझना चाहिए? दादाश्री : जब तक राग और द्वेष हैं तब तक जीवात्मा कहलाता है और वीतराग हो जाए तो भगवान। गाली देने पर जिन्हें द्वेष नहीं होता और फूल-माला चढ़ाने पर राग नहीं, वे कहलाते हैं भगवान ! जो द्वंद्व से परे हो चुके हैं, वे कहलाते हैं भगवान ! द्वंद्व क्या है, वह आप समझे या नहीं? आप किसे समझते हो? जहाँ एक हो वहाँ दूसरा होता ही है, अवश्य ही होता है। जहाँ नफा होता है, वहाँ नुकसान है ही। जो द्वंद्व से परे हो चुके हैं उन्हें दुःख भी नहीं है और सुख भी नहीं। गालियाँ देने पर दुःख नहीं, फूल-हार चढ़ाने पर सुख नहीं! वे वीतराग कहलाते हैं, निर्भय होते हैं। आत्मा वीतराग है, उसे भगवान कहा जाता है और अंदर जो आत्मा है, वही परमात्मा कहलाता है। जो बाहर से भगवान हो चुके हैं, अंदर उनका आत्मा परमात्मा बन जाता है। अंदर परमात्मा स्टेज तक पहुँच जाने पर यह शरीर भी भगवान हो चुका होता है। कुछ समझ में आया मैं क्या कहना चाहता हूँ ? पॉइन्ट ऑफ व्यू? प्रश्नकर्ता : तो फिर ये जो कृष्ण भगवान कहलाते हैं... दादाश्री : हाँ, ऐसा ही, ऐसा ही है। कोई भी बन सकता है। यह
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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