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________________ १५२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) प्रश्नकर्ता : दादा, लेकिन फिर भी व्यवहार में रहते हैं तो ऐसा लगता है कि कोई हमें खींच रहा है, खिंचना पड़ता है। दादाश्री : खिंचने का कोई अर्थ नहीं है। वह निकाली चीज़ है। प्रश्नकर्ता : नहीं, लेकिन पहले राग था न वहाँ पर। दादाश्री : खत्म हो गया। इसलिए अब आपको लगता है कि गले पड़ गया है। मान देते हैं तो भी भार जैसा लगता है। प्रश्नकर्ता : हं... ऐसा ही लगता है। दादाश्री : मान देते हैं तब भी अच्छा नहीं लगता अब तो। चंदूभाई को, 'चंदूभाई साहब, हमारे यहाँ पधारिए, पधारिए' तो भी आपको अंदर अच्छा नहीं लगता। कहते हैं, 'अरे, वापस यह क्या दखल? और पहले जो मीठा लगता था, वही अब अच्छा नहीं लगता'। वीतराग के प्रति प्रस्थान प्रश्नकर्ता : राग से क्या होता है? दादाश्री : मूर्छा आ जाती है। मूर्छा, मूर्छित ! राग का फल मूर्छा है और द्वेष का फल भय। जब ये दोनों चले जाएँगे तब वीतराग हो जाएगा। तब तक वीतराग नहीं हो सकता। अपने महात्मा वीतराग होने की तैयारी कर रहे हैं। कोई पूछे कि इनमें से कुछ हो चुके हैं ? तो कहेंगे, 'हाँ हो चुके हैं। वीतद्वेष हो चुके हैं'। अब वीतराग बनना है। दो था, उनमें से अब एक कम हो गया। तो कहते हैं, 'वीतद्वेष बन जाने के बाद राग कहाँ रहा?' तो कहते हैं 'ज्ञानी पर राग होता है। ज्ञानी पर, महात्माओं पर, तो इस संसार पर से राग उठ गया और यहाँ घुस गया लेकिन यह राग प्रशस्त राग कहलाता है'। यह प्रशस्त राग वीतरागता का कारण है। सिर्फ यही एक राग ऐसा है जो वीतराग बनाता है। अपने इन सभी महात्माओं पर आपको राग है या नहीं है?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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