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________________ १४८ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) राग। द्वेष को यों ही उड़ा देता है, फर्स्ट स्टेप से ही। अर्थात् सभी का हम पर राग है तो सही लेकिन वह प्रशस्त राग कहलाता है, वह सांसारिक राग नहीं है। उसमें सांसारिक भाव नहीं है, भौतिक नहीं है। प्रशस्त राग और प्रशस्त मोह यह प्रशस्त राग तो निरंतर रखने योग्य है। प्रशस्त अर्थात् ऐसा राग जो अहितकारी नहीं है, हितकारी है। ऐसा राग जिसकी ज्ञानियों ने प्रशंसा की है और अप्रशस्त अर्थात् अहितकारी, संसार में भटकाने वाला। प्रश्नकर्ता : राग और प्रशस्त राग में क्या फर्क है? दादाश्री : प्रशस्त राग मोक्ष में ले जाने वाला राग है और यह सांसारिक राग संसार में डूबाने वाला राग है। जो राग भौतिक सुख के लिए होता है, वह राग कहलाता है और भौतिक छोड़ने के लिए जो राग किया जाता है, वह प्रशस्त राग है। प्रश्नकर्ता : प्रशस्त राग और प्रशस्त मोह में क्या फर्क है? दादाश्री : प्रशस्त राग जा सकता है, धुल जाता है। मोह धुलने में ज़रा देर लगती है। राग चिपकाई हुई चीज़ है और मोह चिपकी हुई चीज़ है। फिर यह तो छूट जाता है, इस राग के बाद चिपचिपाहट नहीं रहती। क्या प्रशस्त राग में चिपचिपाहट है कहीं पर? सांसारिक राग गाढ़ होता है जबकि प्रशस्त राग गाढ़ नहीं होता। ज्ञानी की भक्ति, वह शुद्ध लोभ प्रश्नकर्ता : दादा के प्रति भक्ति के भाव होते हैं, अत्यंत भक्ति भाव आता है तो उसे किसमें रखेंगे? क्रोध-मान-माया-लोभ में से किसमें रखेंगे? दादाश्री : यह लोभ में जाएगा। सिर्फ लोभ में ही। प्रश्नकर्ता : वह प्रशस्त राग नहीं है, दादा? वह क्रोध-मान-मायालोभ में कैसे आएगा? प्रशस्त राग हुआ है न महात्माओं को।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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