SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११९ [२.३] वीतद्वेष दादाश्री : वह तो बढ़ा ही देता है न, राग तो! प्रश्नकर्ता : राग भी आग है न? दादाश्री : राग? राग आग नहीं है। यदि राग आग होता तो राग होता ही नहीं। इच्छा अग्नि है, राग आग नहीं है। जब राग होता है न तब तो बल्कि इंसान को अच्छा लगता है, ठंडक महसूस होती है। प्रश्नकर्ता : द्वेष तो बेकार पटाखे जैसा है। फुस्स करके उड़ जाएगा। द्वेष ज़्यादा नुकसान नहीं पहुँचाता लेकिन यह जो राग है वह बहुत नुकसान पहुंचाता है। क्या यह बात सही है? दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। यह जगत् द्वेष से खड़ा है। बैर से और बैर में से राग उत्पन्न हुआ है। अतः खड़े रहने का मूल कारण बैर है। दूसरे शब्दों में कहें तो जगत् बैर से खड़ा है। वह द्वेष, बैर वगैरह एक ही तरह के हैं। उससे यह जगत् खड़ा है अतः निर्वैरी हो जा ताकि किसी जगह बैर न रहे! जब आत्मज्ञान प्राप्त होता है तो सब से पहले वीतद्वेष बन जाता है। उसके बाद वीतराग बनता है। इस संसार में जो राग है, वह किस जैसा है? जैसे कि, जेल में बैठा हआ इंसान जेल में जाते समय रोता है लेकिन जेल में जाने के बाद जेल को लीपता-पोतता है। लीपता है या नहीं लीपता, अगर वहाँ खड्डे वगैरह हों तो? उससे हमें लगेगा कि, 'ओहोहो! जेल पर राग है'। उसके बाद यदि हम उससे पूछे कि, 'तुझे जेल पर राग है?' तब वह कहता है, 'नहीं भाई, जेल पर कभी राग होता होगा? लेकिन यहाँ रात को सोएँ कैसे? इसलिए ऐसा कर रहे हैं। उसी तरह इस संसार पर भी राग नहीं है लेकिन क्या हो सकता है? लेकिन यह तो क्या होता है कि यहाँ फँस चुके हैं इसीलिए लीपनापोतना पड़ता है, सभी कुछ करना पड़ता है। लीपना पड़ता है या नहीं लीपना पड़ता? प्रश्नकर्ता : लीपना पड़ता है, दादा।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy