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________________ [२.२] पसंद-नापसंद १११ तो जानवर जैसा होता है। अगर कुछ बोले तब भी जानवर जैसा बोलता है। मैंने तो ऐसे बहुत नि:स्पृह साधु देखे हैं। नि:स्पृह हो जाए तो इस तरफ गिर जाता है और अगर सिर्फ सस्पृह रहे तो उस तरफ गिर जाता है। सस्पृह-नि:स्पृह की आवश्यकता है। प्रश्नकर्ता : नापसंदगी में द्वेष न रहे तो वह उपेक्षा कहलाती है, तो अभाव में भी ऐसा ही है न? किसी व्यक्ति पर यदि हमें अभाव रहे तो उस पर द्वेष तो होता ही नहीं है न? दादाश्री : नापसंदगी का सवाल ही नहीं है न! प्रश्नकर्ता : नहीं! उपेक्षा में ? दादाश्री : उपेक्षा में अर्थात् 'अपने लिए हितकारी नहीं है यह चीज़!' लेकिन उसके प्रति द्वेष रहित व्यवहार। संसार के लोग द्वेष रखते हैं। प्याज़ के प्रति द्वेष रहा करता है। देखते ही चिढ़ मचने लगे तो उसे उपेक्षा नहीं कहेंगे। उसे देखें या वह हमारे पैर से छू जाए तब भी चिढ़ नहीं मचती। इसके बावजूद भी हमें (उससे कुछ) लेना-देना नहीं होता। उन लोगों को इफेक्ट होता है। प्रश्नकर्ता : किसी पर अभाव की वजह से द्वेष आता है न दादा? किसी पर अभाव है उसका अर्थ यह कि ज़रा द्वेष है न? दादाश्री : अभाव उसी को कहते हैं कि जहाँ द्वेष हो। जहाँ द्वेष नहीं हो उसे डिसलाइक कहा जाता है। वह आत्मा तक नहीं पहुँचता। वह इन्द्रियों तक पहुँचता है इसलिए द्वेष नहीं कहलाता। अगर आत्मा तक पहुँचे तो द्वेष कहलाता है। यानी कि लाइक और डिसलाइक तक पहुँचता है। प्रश्नकर्ता : यह जो उदासीनता है, वह उपेक्षा से भी आगे की चीज़ है न? दादाश्री : उदासीनता अलग चीज़ है। वह आगे की स्टेज है। उदासीनता और वीतरागता, इन दोनों के बीच में कुछ डिफरेन्स है और
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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