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________________ ९४ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) हो जाए तो! यदि सामने वाले के लिए दुःखदाई नहीं है तो कोई ज़रूरत नहीं है। वह तो सिर्फ अपनी समझ है। हमें अपनी तरह से धो देना है। ज्ञेय की तरह देखने से धुल जाएगा। और अज्ञान दशा में तो इस तरह किसी का कुछ बिगड़ जाए तो ऐसा लगता है कि अच्छा हुआ और उसके प्रति द्वेष रहता ही है। अभी बाद में पीछे से द्वेष नहीं रहता। लगता ज़रूर है कि खराब हुआ, अच्छा हुआ ऐसा लगता है। अतः यह जो सब निकल रहा है, वह भरा हुआ माल है। विषय ग्रंथि छेदन, वहाँ निज स्पष्ट वेदन प्रश्नकर्ता : यह जो द्वेष है, वह जागृति में रखता है और राग तन्मयाकार करवाता है तो इन काम-क्रोध से क्या नुकसान होता है? उसकी ज़रूरत नहीं है? दादाश्री : काम-क्रोध वगैरह सभी दुःख ही देते रहते हैं। बहुत दुःख देते हैं। उसकी ज़रूरत तो, ऐसा है न कि जब तक संसार उसे अच्छा लगता है, तब तक उसकी ज़रूरत है लेकिन यदि उसे दुःख सहन नहीं होता है तो वास्तव में दुःख देने वाले काम-क्रोध ही हैं, बेटा नहीं देता। बाहर कोई भी दु:ख नहीं देता। ये खुद के अंतर शत्रु ही दुःख देते हैं। ये षडरिपु ही दुःख देते हैं। बाहर कोई दुःख देने वाला है ही नहीं, ये ही सब हैं। वे यदि इससे अलग हो गए तो निबेड़ा आ जाएगा। यह मैं देखता हूँ कि बाहर से मुझे कोई दुःख नहीं देता। जब तक अंदर षडरिपु थे, तब तक दु:ख दे रहे थे। अब अंदर उन लोगों ने वह सब बंद कर दिया है। सभी अपने-अपने गाँव चले गए हैं। घर में अकुलाहट होती है, उसका क्या कारण है? क्या इसलिए कि पति ऐसा है? नहीं! तो क्या पत्नी ऐसी है ? नहीं! राग-द्वेष हैं इसलिए दुःख होता है। राग-द्वेष नहीं होंगे तो किसी के साथ टकराव होगा ही नहीं। राग-द्वेष हैं, खुद को। राग-द्वेष अर्थात् स्वार्थ । हर कोई अपने स्वार्थ में पड़ा रहे तब उसे कहते हैं राग-द्वेष। हमें क्या स्वार्थ की कोई झंझट
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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