SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ आप्तवाणी -१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : वे तो ये उदयकर्म हैं । प्रश्नकर्ता : क्योंकि यदि वह प्रज्ञा का खुद का स्वतंत्र डिपार्टमेन्ट होता तो प्रज्ञा सभी महात्माओं में उत्पन्न हो चुकी है, बावजूद भी अपने महात्माओं को ज्ञान के बाद में एक सरीखा ... उसके दादाश्री : सभी को एक सरीखा ज्ञान उत्पन्न नहीं होता, हर एक को उसके सामर्थ्य के अनुसार होता है, फिर उसी अनुसार आज्ञा पालन हो पाता है । प्रश्नकर्ता : यानी आपने सामर्थ्य के अनुसार कहा । ऐसा क्यों ? दादाश्री : ऐसा ही है न! उसका निश्चय बल वगैरह ऐसा सब होना चाहिए न ! अलग-अलग नहीं होता हर एक का ? हर एक का अलग। तेरा अलग, उसका अलग, इन सब का अलग-अलग है न । प्रश्नकर्ता : लेकिन आप ऐसा कहते हैं न कि चित्त तो सभी का पूर्णत: शुद्ध हो चुका है ? दादाश्री : हाँ, तभी तो आत्मा प्राप्त होगा न ! प्रश्नकर्ता : तो यदि शुद्ध चित्त पूर्णतः शुद्ध हो जाएगा तो उतनी ही प्रज्ञा उत्पन्न होगी ? दादाश्री : हाँ। हम जब ज्ञान देते हैं तब आत्मा शुद्ध हो जाता है इसलिए प्रज्ञा उत्पन्न हो ही जाती है। फिर उसकी पाँच आज्ञा पालन करने की जो शक्ति है न, उसके जितने प्रयत्न रहते हैं उतना ही उसका लाभ कम होता जाता है ! प्रश्नकर्ता : अर्थात् जितना आज्ञा का पालन किया जाए उतनी ही प्रज्ञाशक्ति खिलती जाती है ? दादाश्री : हाँ, वैसा निश्चय बल होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : लेकिन इसमें निश्चय बल किसका है ? दादाश्री : सबकुछ खुद का ही ।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy