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________________ ४२ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) दादाश्री : नहीं, उनमें दर्शन होता है। दर्शन के बिना तो कभी साइन्टिस्ट बना ही नहीं जा सकता। वह दर्शन कुदरती है। कुदरत ने उसे हेल्प की, वह उसका दर्शन ही है। प्रश्नकर्ता : ये जो 'अखो' वगैरह सारे संत हो चुके हैं, उनमें प्रज्ञा थी या नहीं? दादाश्री : नहीं, वह दर्शन कहलाता है। प्रज्ञा नहीं कहलाती। प्रज्ञा, आत्मा प्राप्त होने के बाद प्रज्ञा कहलाती है। लौकिक भाषा में उसे प्रज्ञा कहते हैं लेकिन लौकिक का यहाँ पर चलेगा नहीं न! लौकिक का यहाँ क्या करना है ? लौकिक को वहाँ पर पैसे नहीं देते ! प्रज्ञा सावधान करती है अहंकार को प्रश्नकर्ता : जब कुछ विचार आते हैं, तब हम उनसे कहते हैं कि 'तेरा यह सब गलत है। अब, यह कहने वाला कौन है? आपसे मिलने के बाद! पहले तो ऐसा कुछ था ही नहीं। तो वह मार्गदर्शन कौन देता है ? प्रज्ञा या बुद्धि ? दादाश्री : हमें प्रज्ञा सचेत करती है क्योंकि अब मोक्ष में जाने का वीज़ा मिल गया है। उसके बाद यदि मनुष्य अहंकार करके उस प्रज्ञा को दबा देता है, तो फिर वापस पागलपन करता है। प्रश्नकर्ता : अंदर जो यह प्रज्ञा सचेत करती है, तो वह मन द्वारा सचेत करती है या बुद्धि द्वारा सचेत करती है? चित्त द्वारा या अहंकार द्वारा सचेत करती है? दादाश्री : प्रज्ञा अहंकार को सचेत करती है, अन्य किसी को नहीं। प्रश्नकर्ता : लेकिन क्या डायरेक्ट सचेत करती है? दादाश्री : डायरेक्ट! अन्य किसी को अधिकार ही नहीं है न! अहंकार का कोई ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक)नहीं है। अहंकार का कोई ऊपरी नहीं है, फिर भी पूरे दिन वह करता तो है सारा बुद्धि का कहा हुआ।
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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