SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६ आप्तवाणी-१३ (उत्तरार्ध) का जो ज्ञान है, वह पहले उसे बुद्धि से ही समझना है न? दादा का 'ज्ञान' लेने के बाद क्या बुद्धि की बातें पर (पराई) हो जाती है? दादाश्री : फिर बुद्धि का वर्चस्व ही बंद हो जाता है। फिर प्रज्ञा का वर्चस्व हो जाता है। प्रज्ञा का स्वभाव है कि वह निरंतर मोक्ष में ले जाने के लिए ही सचेत करती रहती है। जो यहाँ पर अध्यात्म को समझने के लिए आता है, वह तो बुद्धि से नहीं समझता। मेरे पास कोई व्यक्ति बुद्धि से समझ ही नहीं सकता क्योंकि मैं जो वाणी बोलता हूँ न, वह वाणी आवरणों को तोड़कर आत्मा को टच होती है और उसे खुद को समझ में आता है। बाकी, मैं जो कहता हूँ, बुद्धि उसका विश्लेषण कर ही नहीं सकती बल्कि बुद्धि थक जाती है, हमें परेशान कर देती है। उस बुद्धि का इसमें उपयोग ही नहीं करना है। उसकी ज़रूरत ही नहीं रहती। ___मैं ये जो बोल रहा हूँ, ये आवरण भेदी शब्द हैं इसलिए आवरण को भेदकर उसके आत्मा तक पहुँचते हैं और मैं क्या कहता हूँ कि अगर आपका आत्मा कबूल करे तभी एक्सेप्ट करना। और आपका आत्मा कबूल करता है। इसलिए अब इसमें बुद्धि दूर ही रहती है। प्रश्नकर्ता : तो दादा का ज्ञान लेने के बाद महात्माओं को जो बारबार दादा के पास आने का मन होता है, तो वह प्रज्ञा से है या बुद्धि से? दादाश्री : बुद्धि और प्रज्ञा दोनों का ही काम नहीं है। प्रज्ञा और बुद्धि का काम अलग है। कुछ भाग प्रज्ञा का है। बाकी यह जो आपको यहाँ पर लेकर आता है, वह सारा काम पुण्य का है! प्रश्नकर्ता : हाँ, वह ठीक है लेकिन वह भी तभी होगा न जब प्रज्ञा काम कर रही होगी? दादाश्री : यानी कि यदि प्रज्ञा काम कर रही होती तो सभी महात्मा आ जाने चाहिए न? लेकिन सभी नहीं आ सकते। कहते हैं न, 'अभी मेरे पुण्य कुछ कम है', यदि प्रज्ञा ही उसके लिए ज़िम्मेदार होती, तब तो सभी आ जाने चाहिए न?
SR No.034041
Book TitleAptvani 13 Uttararddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy