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________________ ३५४ आप्तवाणी-९ प्रश्नकर्ता : लेकिन उस गुरु को लघुतम बनने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : ऐसा लघुतम भाव ही रखना है। कोई 'गुरु' कहकर संबोधित करे तो, व्यवहार में दूसरा शब्द तो कहाँ से लाएगा, इसलिए 'गुरु' कहे तो कहना है कि, 'भाई, हाँ, मैं इनका गुरु हूँ।' लेकिन अंदर वे जानते हैं कि मैं तो लघु ही हूँ। यानी हर एक व्यक्ति को 'रिलेटिव' में लघु से लेकर लघुतम होने तक (ऐसा) रखना चाहिए। वहाँ पर गुरु (भाव) नहीं रखना चाहिए। लघुतम से 'एक्जेक्टनेस' प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि मैं लघु से लघु आत्मा हूँ, मेरा कोई ऊपरी नहीं है, मैं संपूर्ण स्वतंत्र हूँ। इस प्रकार दूसरे लोग खुद स्वतंत्र क्यों नहीं रह सकते? गुरु की आज्ञा में रहने की ज़रूरत क्यों है ? दादाश्री : सभी स्वतंत्र ही हैं न! गुरु की आज्ञा में रहने की क्या ज़रूरत है ?! 'भीतर' वाले की आज्ञा में रहना है लेकिन यह तो उसे भीतर क्रोध-मान-माया-लोभ मारते ही रहते हैं। तो फिर कौन स्वतंत्र हो सकता है ? जिसके क्रोध-मान-माया-लोभ चले जाएँ वह स्वतंत्र हो जाता है। नहीं तो यों ही स्वतंत्र नहीं हुआ जा सकता न! गुरु की आज्ञा तो, यदि शिष्य का सामर्थ्य हो तो पाले और न हो तो न पाले। ये आज्ञाएँ कहीं मेरी नहीं हैं। ये तो उनकी खुद की आज्ञाएँ हैं। मैं तो डाँटता ही नहीं किसी को। किसी को आज तक मैंने डाँटा ही नहीं। इन सभी से कह दिया है कि 'मैं आपका शिष्य हूँ। बाइ रिलेटिव व्यू पोइन्ट मैं सभी का शिष्य हूँ, लघुतम हूँ। बाइ रियल व्यू पोइन्ट मैं गुरुतम हूँ। यानी व्यवहारिक दृष्टि से मुझसे छोटा कोई नहीं है, मुझसे सभी बड़े हैं और वास्तविक दृष्टि से, भगवान की दृष्टि से मुझसे बड़ा कोई नहीं है,' मैं तो ऐसा कहता हूँ। आपको समझ में आया न? बात समझ में आई आपको? यानी ये सभी मेरे ऊपरी ही कहलाएँगे न? और इन सभी का मैं शिष्य हूँ।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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