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________________ ३४२ आप्तवाणी-९ प्रश्नकर्ता : ऊपर चढ़ना हो तो ज़ोर लगता है। दादाश्री : तो लघुतम अर्थात् नीचे उतरना। वह तो, खेल-खेल में नीचे उतरा जा सकता है। नहीं उतर सकते खेल-खेल में? हम तो आराम से खेलते-खेलते उतर गए थे। यानि भाव लघुतम का ही रखना चाहिए। जितना लघुतम का भाव रखोगे, उतना ही गुरुतम में आगे बढ़ोगे और लघुतम बनने से गुरुतम पद मिलता है। तब भगवान वश बरतेंगे __ यानी मैं इस व्यवहार में लघुतम हूँ और निश्चय में वास्तव में तो गुरुतम हूँ। मेरा ऊपरी कोई नहीं है। भगवान भी मेरे वश में हो चुके हैं। तब फिर और क्या बचा? __ लोग मुझसे कहते हैं, 'आप दादा भगवान कहलवाते हो?' मैंने कहा, 'नहीं, मैं किसलिए कहलवाऊँ ? जहाँ भगवान खुद ही मेरे वश में हो गए हैं, फिर वैसा कहलवाने की क्या ज़रूरत है? भगवान, चौदह लोक का नाथ मेरे वश में हो चुका है और यदि आप मेरी कही हुई बात को अपनाओगे तो आपका नाथ भी आपके वश हो जाएगा।' जो वश हो चुका है, वह काम का, लेकिन भगवान बनकर क्या करना है? जो हैं उन्हीं को भगवान रहने दो न! चौदह लोक के नाथ मेरे वश में हो चुके हैं और आपके भी वश में हो जाएँ, ऐसा रास्ता बताता हूँ। भगवान बनना बहुत बड़ा जोखिम है इसलिए यदि मैं खुद को भगवान कहूँ तो मेरे सिर पर जोखिमदारी आएगी। आपका तो क्या जाएगा? और मैं किसलिए इसमें घुसूं लेकिन? मुझे घुसकर क्या करना है? भगवान मेरे वश हो चुके हैं। वे क्या बुरे हैं? तो भगवान बनना अच्छा या वश हो चुके हैं वह अच्छा? कौन सा पद ऊँचा है? प्रश्नकर्ता : वश हो चुके हैं, वह। दादाश्री : लो, अब ऐसा ऊँच पद छोड़कर कौन नीचे पद में
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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