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________________ [५] मान : गर्व : गारवता ३१७ वह अहंकार है। शायद आपमें अभिमान नहीं भी हो, गर्व भी नहीं हो, जहाँ खुद नहीं है वहाँ 'मैं हूँ' ऐसा मानना, वह है मैं पद। जो स्व-पद को चूक गए हैं, वे मैं पद में होते हैं, लेकिन गर्व क्या है ? गर्वरस तो बहुत गाढ़ होता है। अभिमान तो भोला रस है बेचारा, पाव एक पाउन्ड! जबकि गर्वरस तो है चालीस पाउन्ड! प्रश्नकर्ता : ज़रा गर्व रस का उदाहरण देकर समझाइए। दादाश्री : अभिमान में वह ऐसा नहीं जानता कि 'इन सब का कर्ता मैं हूँ' और गर्वरस तो 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मानता है। यानी कि एक का कर्ता अर्थात् पूरे ब्रह्मांड का कर्ता भी मैं हूँ ऐसा मानता है। अतः गर्व रस तो बहुत आगे तक पहुँचता है। गर्व करता होगा कोई? अरे, सभी बातों में गर्व होता है। 'मैं करता हूँ' इसका भान, वह सब गर्वरस कहलाता है। जब कृपालुदेव का यह भान चला गया कि 'मैं करता हूँ,' तब यथार्थ समकित हुआ, तब उन्होंने क्या कहा कि 'मट्यो उदयकर्म नो गर्व रे!' (मिटा उदय कर्म का गर्व रे!) पूरा जगत् उदय कर्म में गर्व रखता है। उसमें कोई भी अपवाद नहीं है। क्योंकि, जब तक खुद 'स्व रूप' नहीं हो जाता तब तक दूसरी जगह पर है और दूसरी जगह पर है इसलिए गर्व हुए बिना नहीं रहता। 'इगोइज़म' किसलिए घुसा है? अज्ञानता के कारण। किसकी अज्ञानता? यह सब कौन करता है, उसकी अज्ञानता है। इसलिए नरसिंह मेहता क्या कहते हैं? "हूँ करूँ, हूँ करूँ ए ज अज्ञानता, शकटनो भार ज्यम श्वान ताणे, सृष्टि मंडाण छे सर्व ऐणी पेरे, जोगी जोगेश्वरा कोक जाणे।" क्या गलत कह रहे हैं यह नरसिंह मेहता? जबकि कई लोग कहते हैं कि, 'मैंने यह किया, मैंने स्वाध्याय किया, मैंने तप किया, मैंने जप किया' तो कौन सी बात सही है ? इसलिए 'मैं करता हूँ, मैं करता हूँ' यह अज्ञानता है। कैसे प्राप्ति करेगा मनुष्य? और गर्व क्या है ? कि जहाँ खुद नहीं करता है वहाँ पर कहता है, 'मैंने किया'। वह
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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