SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६८ आप्तवाणी-९ दुतकारना) लगे तो इंसान खत्म हो जाता है। बचपन में दो-पाँच-दस बार जिसका अपमान हो जाए, मान नहीं मिले और मान को तरछोड़ लगे, तब वह मान का ही नियाणां (अपना सारा पुण्य लगाकर किसी एक चीज़ की कामना करना) करता है। वह बड़ा होकर बहुत मानी बनता है, ज़बरदस्त मानी बनता है। बचपन से ही उसने तय किया होता है कि मुझे इन सब से 'आगे' जाना है। यानी फिर वह हेन्डल मारकर कहता है, 'इन सब से आगे आ जाऊँ, तभी सही है,' और वह आगे आता भी है ! हाँ, तन-तोड़ मेहनत वैगरह सबकुछ करता है, लेकिन आगे पहुँचता है और जिसे बचपन में मान मिला हो, वह मान के लिए अधिक आगे नहीं बढ़ता। अब, अगर मान बहुत मिले तो मान की भूख मिट जाती है। 'आउट ऑफ प्रपॉर्शन' (अतिशय) मान मिलता ही रहे, तो फिर मान की भूख मिट जाती है। फिर उसे मान अच्छा नहीं लगता। हमें क्या कम मान देते होंगे लोग? ऐसा मान आपको मिले तो भूख ही मिट जाए फिर । मान के स्वाद से लोभ छूटता है आपको मान पसंद है? प्रश्नकर्ता : दादा, अभी तक अपमान के भय के कारण जो संकुचितता थी या मान की हानि होगी, उससे डिप्रेशन रहता था, जिसके कारण मैं किसी प्रक्रिया में भाग ही नहीं लेता था, दूर हट जाता था तो यह मान मिला तो उससे मुक्तता आती गई। दादाश्री : नहीं, यह लोभग्रंथि है इसलिए उसे मान मिलने से जो स्वाद आया तो लोभ की ग्रंथि टने लगी। लोभग्रंथि टूटती है। मान का स्वाद चखने को मिला, उससे लोभ की ग्रंथि टूट जाती है, एकदम से! अब जो मान की गाँठ होती है न, वह मान उसे भटकाता रहता है। जहाँ मान मिल रहा हो, वहाँ उसे कोई कहे कि 'आपके नाम की एक तख़्ती लगवा देंगे।' तो कहेगा, 'पचास हज़ार लिख लो।' मान मिलने पर लोभ छोड़ देता है। जबकि लोभी तो लाख मान मिले तब भी लोभ
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy