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________________ २६४ आप्तवाणी-९ कॉन्ट्रैक्ट का धंधा, पैसे आते-जाते रहते थे, लोगों पर प्रेम। लोगों ने भी प्रेमदृष्टि कबूल की कि भगवान जैसे इंसान, बहुत सुखी इंसान! लोग कहते थे कि बहुत सुखी इंसान है, जबकि मैं बेहद चिंता करता था और फिर एक दिन जब चिंता मिट ही नहीं रही थी, नींद ही नहीं आ रही थी, तब फिर मैं बैठा और चिंता की पुड़िया बना दी। ऐसे मोडा, वैसे मोड़ा फिर उस पर विधि की। मंत्रों से विधि की और फिर दो तकियों के बीच में रखकर सो गया, तब अच्छी नींद आ गई। और फिर सुबह पुड़िया को विश्वामित्री नदी में बहा आया, फिर चिंता कम हो गई। लेकिन जब 'ज्ञान' हुआ तब पूरे जगत् को देखा-जाना। प्रश्नकर्ता : लेकिन 'ज्ञान' से पहले इसकी भी जागृति तो थी न, कि यह अहंकार है, ऐसी? दादाश्री : हाँ, वह जागृति तो थी। अहंकार है, वह भी पता चलता था, लेकिन वह अच्छा लगता था। फिर जब बहुत चुभा तब पता चला कि यह तो अपना मित्र नहीं है, यह तो अपना दुश्मन(शत्रु) है, मज़ा नहीं है इनमें किसी में। प्रश्नकर्ता : वह अहंकार कब से दुश्मन लगने लगा? दादाश्री : रात को नींद नहीं आने देता था न, तब समझ गया कि यह कैसा अहंकार! इसलिए एक रात को यों पुड़िया बनाकर सुबह विश्वामित्री नदी में बहा आया। क्या हो सकता था लेकिन? प्रश्नकर्ता : पुड़िया में क्या रखा? दादाश्री : यह सारा अहंकार! खत्म करो इसे यहीं से। किसके लिए लेकिन? बिना बात के, न लेना, न देना! लोग कहते 'बहुत सुखी हैं' और मुझे तो यहाँ सुख की बूंद भी नहीं दिखती थी, अंदर अहंकार की चिंता-परेशानियाँ होती रहती थीं न! अहंकार को ज़रा सी चोट लगी की आ बनी। पूरी रात नींद नहीं आती थी। अरे, पहले तो किसी के विवाह में जाऊँ न, तो वहाँ पर किसी ने ऐसे जय-जय किया हो लेकिन देखा नहीं हो तो ग़ज़ब हो जाता था।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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