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________________ २३० आप्तवाणी-९ दादाश्री : वह तो सभी समझते हैं। मार खाने का लालच किसी को होता है ? गालियाँ खाने का लालच किसी को होता है ? किस प्रकार का लालच, वह नहीं समझते सभी? यह भोग लूँ, वह भोग लूँ, फलाना भोग लूँ, वही लालच। प्रश्नकर्ता : लेकिन वह लालच किस आधार पर टिका रहता है ? दादाश्री : सुख चखने के आधार पर! जहाँ-तहाँ से सुख चख लेना है। ध्येय वगैरह कुछ भी नहीं। मान-अपमान भी नहीं, कुछ भी नहीं। ढीठ होकर सुख चखना है। कोई नियम ही नहीं। प्रश्नकर्ता : तो ऐसे लालच का कारण क्या है ? किस प्रकार से यह लालच आ जाता है ? दादाश्री : हर कहीं से सुख प्राप्त करना, और हर किसी से छीन लेना। अत: फिर 'लॉ,' नियम जैसा कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक कि यदि वह लोकनिंद्य हो, फिर भी उसे कुछ नहीं पड़ी होती, और वह सब लोकनिंद्य ही होता है। यानी फिर लालच ऐसे काम करवाता है। मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देता। प्रश्नकर्ता : तो लालच में उसे कैसे भाव उत्पन्न होते हैं ? दादाश्री : जो कुछ भी मिले, उसके लिए लालच होता है। लालच अर्थात् पूरे दिन भौतिक सुख ढूँढता रहता है। प्रश्नकर्ता : किसी भी कीमत पर भौतिक सुख लेना? दादाश्री : हाँ, बस। अपने 'ज्ञान' लिए हुए महात्मा ऐसा सुख नहीं ढूँढते। वे तो फाइलों का समभाव से निकाल करते हैं। जो आ पडे उसका निकाल करते हैं, लेकिन ढूँढते नहीं हैं? किसी भी जन्म में लालच नहीं गया है, इसीलिए यह सारा दुःख है न! और दुःख भी अनंत जन्मों तक मिलता है, सुख कभी भी नहीं मिलता। लालच दु:ख का ही कारण है। सुख की संतुष्टि ही नहीं होती
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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