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________________ १४४ आप्तवाणी-९ नहीं है इस दुनिया में क्योंकि मैंने आपको आत्मा दिया है, नि:शंक आत्मा दिया है, कभी भी शंका उत्पन्न नहीं हो, ऐसा आत्मा दिया है इसलिए 'ऐसा होगा या वैसा होगा' ऐसी झंझट ही मिट गई न! यह तो 'अक्रम विज्ञान' है इसलिए सीधे शुद्ध आत्मा ही प्राप्त हो जाता है। ऐसा है न, इस शरीर में दो भाग हैं। एक आत्मविभाग, वह खुद का क्षेत्र है और एक अनात्मविभाग, वह परक्षेत्र है। जब तक संसार इन दोनों विभागों को नहीं जानता, तब तक 'मैं चंदूभाई हूँ,' ऐसा कहता रहता है। अपने यहाँ जो ज्ञान देते हैं न, वह 'अक्रम विज्ञान' है! अक्रम विज्ञान अर्थात् क्या? कि आत्मा और अनात्मा का विवरण होने के बाद दोनों अलग पड़ जाते हैं। आत्मा आत्मविभाग में बैठा, स्वक्षेत्र में बैठा, और अनात्मा परक्षेत्र में, इस प्रकार विभाजन हो गया। यानी ‘लाइन ऑफ डिमार्केशन' डल जाती है, और सबकुछ रेग्युलर कोर्स में ही हो जाता और बाहर जो आत्मा है वह मिलावट वाला है। अपने यहाँ बाज़ार में भेल आठ रुपये किलो मिलती है न, उतनी ही कीमत का है वह आत्मा। वह भी ‘मिक्स्चर' है कोई स्वाद नहीं आता, बेस्वाद होता है। जबकि इसका तो तुरंत ही स्वाद महसूस होता है। खुद की स्वतंत्रता उत्पन्न हो गई। अब सिर्फ 'फाइलों' का निकाल करना बाकी रहा। तब तक 'इन्टरिम गवर्नमेन्ट' और 'फाइलें' पूरी हो गईं कि 'फुल गवर्नमेन्ट'! फिर जोखिमदारी ही नहीं अब, 'मैं चंदूभाई हूँ' उस ज्ञान पर तो आपको शंका हो गई न? या नहीं हुई? प्रश्नकर्ता : शंका हो गई है। यानी कि मैं आत्मारूप हूँ और चंदूभाई परसत्ता है, पड़ोसी है। दादाश्री : हाँ, चंदूभाई पड़ोसी है। अब एक 'प्लॉट' हो, वह जब
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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