SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० आप्तवाणी-९ को जड़ भाव कहा है और खुद निर्लेप ही है। फिर लेपायमान क्या करेंगे? वे जड़ भाव और प्राकृत भाव हैं, ऐसा हम लोग कहते हैं न? प्रश्नकर्ता : कहते हैं न! दादाश्री : तो फिर यह प्रश्न ही खड़ा नहीं होता न, कि 'क्या होगा और क्या नहीं!' मन-वचन-काया के तमाम लेपायमान भाव वे जड़ भाव हैं - प्राकृत भाव हैं, चेतन भाव नहीं है। वह जाति अलग, वेष अलग। उनका और अपना क्या लेना-देना? 'शंका' के सामने ज्ञान जागृति प्रश्नकर्ता : अब इस ज्ञान के बाद अगर शंका हो तो उस समय हमें क्या करना है? दादाश्री : आपको देखते रहना है, जो शंका आती हो उसे। प्रश्नकर्ता : शंका के लिए हमें कोई प्रतिभाव नहीं देना है? दादाश्री : कुछ भी नहीं, अपने आप ही 'एडजस्टमेन्ट' लेगा। आपको देखते रहना है कि, 'ओहो, चंदूभाई को शंका हुई है!' और जब शंका हो, तब वह संताप में ही रहता है। भयंकर दुःखी रहता है, बेहद दुःख होते हैं उसे क्योंकि भगवान ने कहा है कि शंका ही सब से बड़ा गुनाह है और वह उसे तुरंत ही दुःख देता है। वह शंका जब सामने वाले को दुःख देगी तब की बात तब, लेकिन खुद को भयंकर दु:ख देती है और प्रतिभाव करने से तो शंका का दुःख बढ़ जाता है। प्रश्नकर्ता : तो फिर शंका के समय हमें जागृति रखकर जुदा रहना है? दादाश्री : उस समय तो जुदा रहना ही है, लेकिन हमेशा के लिए जुदा रहना है। एक दिन रखकर देखो, हफ्ते में एक दिन रखकर देखो। तो आपको समझ में आ जाएगा कि दूसरे दिन ऐसा रखेंगे तो परेशानी नहीं होगी। गिर नहीं जाएँगे।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy