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________________ शंका सब से बड़ी निर्बलता है, आत्मघात है वह । ज्ञानीपुरुष पर कोई शंका व्यक्त करे तो ज्ञानीपुरुष समझते सभी कुछ हैं फिर भी जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, वैसी सहज दशा में ही बरतते हैं और उनमें शंका करनेवाले के प्रति किंचित् मात्र भी भेद नहीं रहता। उनकी अभेदता ही सामनेवाले व्यक्ति को शंका में से मुक्त करवाती है। शंका करने के बजाय तो तमाचा लगाना अच्छा कि जल्दी से हल आ जाए लेकिन शंका तो दिन-रात खोखला कर देती है, ठेठ मरने तक। शंकाशील का कोई कार्य सिद्ध ही नहीं होता । निःशंकता को ही सिद्धि मिलती है । निःशंकता से शंका चली जाती है। किसी को मृत्यु की शंका होती है ? वहाँ तो तुरंत ही उसे झाड़ देता है। जब तक प्रकट ज्ञानीपुरुष उपलब्ध हैं तब तक तो तमाम प्रकार की शंकाओं के नि:शंक समाधान हों, ऐसा है और तभी मोक्षमार्ग में ज़रा सी भी बाधा नहीं आएगी। शंका से दो नुकसान हैं । एक तो खुद को प्रत्यक्ष दुःख भोगना पड़ता है और दूसरा सामनेवाले को गुनहगार देखा ! अक्रम विज्ञान क्या कहता है कि शंका-कुशंका करनेवाले को 'खुद' कहना चाहिए कि 'शंका मत रखना ।' कहने वाला अलग और करने वाला अलग ! क्या एक्सिडेन्ट की शंकावाले ड्राइवर को गाड़ी सौंपी जा सकती है? शंकाशील का साथ ही नहीं रखना चाहिए। वर्ना खुद को भी शंका में डाल देगा । जिसे शंका होती है उसी को मुश्किलें आती हैं, यह कुदरत का नियम है और जो शंका पर ध्यान नहीं देता, उसे कोई अड़चन है ही नहीं । 17
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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