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________________ आप्तवाणी-९ शंका, कुशंका, आशंका प्रश्नकर्ता : शंका, कुशंका, आशंका के बारे में समझाइए। दादाश्री : बेटी बड़ी हो जाए, तब बाप यदि बुद्धिशाली हो और मोही कम हो न, तो उसे समझ में आ जाता है कि इसके प्रति शंका रखनी ही पड़ेगी, अब शंका की नज़र से देखना पड़ेगा। वास्तव में जागृत इंसान तो जागृत ही रहेगा न! अब अगर शंका की नज़र से देखना हो तो एक दिन शंका की नज़र से देखे, लेकिन क्या रोज़ शंका से देखना है? और दूसरे दिन शंका की नज़र से देखे, तो वह सब आशंका कहलाती है। कोई 'एन्ड' है या नहीं है ? तूने जिस दृष्टि से देखा, उसका 'एन्ड' तो होना चाहिए न? उसे फिर आशंका कहते हैं। अब कुशंका कब होती है ? किसी लड़के के साथ घूम रही हो, तब मन में तरह-तरह की कुशंकाएँ करता है। अब ऐसा हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता। इंसान ऐसी सब शंकाएँ करता रहता है और दुःखी होता है। शंका करने लायक यह जगत् है ही नहीं, जागृति रखने लायक जगत् है। शंका अर्थात् तो खुद ही दुःख मोल लेना। वह कीड़ा फिर खाता ही रहता है उसे, रात-दिन खाता ही रहता है। जागृति रखने की ज़रूरत है। अपने हाथ में कुछ है नहीं और हाय-हाय करते रहते हैं, उसका क्या अर्थ है ? यदि तुझे समझ में आता है तो बेटियों का पढ़ना बंद किया जा सकता है। तब फिर कहेगा, 'पढ़ाऊँगा नहीं तो कौन स्वीकार करेगा उसे?' अरे, तब यह भी नहीं करता और वह भी नहीं करता, एक तरफ रह न! नहीं तो उस लड़की के साथ घूमता रह रात-दिन! वह 'कॉलेज' में जाए तो साथ-साथ जा, और बैठ वहाँ पर। वहाँ पर 'सर' पूछे कि, 'साथ में क्यों आए हो?' तब कहना, 'भाई, इसलिए कि मुझे शंका रहती है न, साथ रहूँगा तो शंका नहीं रहेगी न!' तब लोग तो उसे घनचक्कर कहेंगे। अरे, उसकी बेटियाँ भी कहेगी न, कि 'पागल हैं ज़रा।' इसलिए बेटियों पर शंका करने को मना करता हूँ और लोग बेटी पर शंका करें, ऐसे हैं भी नहीं। उन्हें ऐसी शंका नहीं रहती। उन्हें तो, सात बेटियाँ हों, तब भी कुछ नहीं। राम तेरी माया! उन्हें तो दूसरी प्रकार
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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