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________________ [२] उद्वेग : शंका : नोंध ६३ बुद्धि ही परेशान करती है, वही उद्वेग लाती है। वेग में से उद्वेग में लाती है। जिसे उद्वेग होता है, खुद वह नहीं है प्रश्नकर्ता : लेकिन अभी तो हममें भी उद्वेग भाव प्रकट होता रहता है न? दादाश्री : उद्वेग होता है और वेग भी होता है, दोनों होते हैं लेकिन 'चंदूभाई' को होते हैं। आपको' नहीं होते। आपको' पता चलता है कि 'चंदूभाई' को उद्वेग हुआ। यदि 'चंदूभाई' ने उद्वेग का व्यापार किया होगा तो उद्वेग होगा। नहीं तो आवेग आएगा, नहीं तो वेग आएगा। इन सब का पता चलता है। प्रश्नकर्ता : लेकिन उद्वेग में फँसे हुए रहते हैं न! दादाश्री : नहीं, ऐसा नहीं है। फँसे हुए तो, आप अपने आपको फँसा हुआ मानते हो या फिर 'चंदूभाई' फँसा हुआ लगता है? प्रश्नकर्ता : लेकिन 'चंदूभाई' फँसा हुआ रहता है न? दादाश्री : वे तो फँसे रहेंगे। उससे आपको क्या है? वह तो जितना डिस्चार्ज है वह पूरा हुए बगैर चारा ही नहीं है। उसमें चलेगा ही नहीं न! आपको अपने ऊपर नहीं लेना चाहिए कि मैं फँस गया क्योंकि शुद्धात्मा तो शुद्धात्मा ही है। उसे कुछ भी स्पर्श नहीं करता, वही शुद्धात्मा प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा दिखता है कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' उसके बावजूद भी 'चंदूभाई' वैसे के वैसे ही रहे। दादाश्री : जो रहे हैं, वह कर्म का निकाल ही हो रहा है। लोगों को दान दे रहे हों तो आप कहो कि 'चंदूभाई बहुत अच्छे हैं, वह भी 'वे ही' हैं और जो ऐसा उद्वेग करते हैं, वह भी 'वे ही' हैं। दोनों एक ही हैं, एक स्वभावी ही हैं। कड़वे पर तिरस्कार है और मीठे पर ज़रा राग है, वह मनुष्य का स्वभाव है। भगवान ने दोनों को एक स्वभावी ही कहा है।
SR No.034040
Book TitleAptvani 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2018
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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