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________________ कत्थपि विच्छिन्ने जिणहरंमि काऊ तिवेठ्ठयं पीढं, विच्छिणं वर कुट्टिमधवलं नवरंग कयं चित्तं ।।१९८२।। - सिरि सिरिवाल कहा अर्थ – विशाल जिन चैत्यों की श्रेष्ठ भूमि में तीन वेदिकावाली पीठिका बनाकर, विविध रंगो से रंगकर उस पर अभिमंत्रित शाली आदि पंचधान्य से सिद्धचक्र का मांडला आलेखन करना । त्रिवेदिका वाली पीठिका यानि हेमकुंड में जैसे तीन सीढ़ियाँ होती है, वैसे यह पीठिका १-१ ईंट अर्थात् ३-३ इंच की सीढ़ियों वाली बनाई जा सकती है । पीठिका पर मांडला बनाने का स्पष्ट पाठ होने पर भी अज्ञानता के कारण लगभग सब जगह पूजनों के मांडले नीचे भूमि पर ही बन रहे है । पूजन करवाने वाले तो अनजान होते है । निश्रादाता पू. गुरुदेवश्री और क्रियाकारक के प्रति पूर्ण विश्वास रखकर श्रद्धानुभाव से भावूक पूजन पढ़ाते है, तो ऐसे समय में पाप के भागीदार कौन ? कच्ची ईंट की पीठिका बनाकर मांडला बनाना सर्वश्रेष्ठ है, कभी ऐसी अनुकूलता नहीं हो तो अंत में छोटी पाट पर (५/९ ऊँची) मांडला बनाया जाए तो विनय धर्म का पालन हो सकता है । 'मांडला तो नीचे ही बनाना चाहिए' ऐसी दलील करने वाले कुछ अनजान क्रियाकारक सिद्धचक्र की दूसरी चौवीसी में आनेवाले 'भूमंडले' शब्द की साक्षी देते है, लेकिन भूमंडले का अर्थ 'भूमि का तल' ऐसा होता ही नहीं है। मंत्रविद् पूज्यपाद पंन्यास प्रवर गुरुदेव श्री अभयसागरजी म.सा को मैने, गृहस्थ अवस्था में 'भूमंडले' शब्द बताकर भूमि पर मांडला बनाने की बात कही, तब पूज्यश्री ने बताया कि इस शब्द का अर्थ शब्द शास्त्र के आधार पर नही करना है, क्योंकि यह मंत्रशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है । गुरुदेवश्री के इस शब्द का रहस्य तो उस समय समझ नहीं आया पर दीक्षा के बाद संस्कृत का अभ्यास किया और ग्रंथो का वांचन हुआ, तब पता चला कि 482 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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