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________________ है । अव्याबाध आनंद पहचान में आता है और सिद्ध परमात्मा के प्रभाव से आत्मगुण वैभव के दर्शन होते है । जैसे अमृत पीने से चढा हुआ जहर उतरने लगता है, वैसे सिद्धपद की आराधना से आसक्ति भाव का मोह का जहर आत्मा से उतरने लगता है । कभी पुण्योदय से संपत्ति, वैभव, अतिशय बढ़ते जाते है, तो भी वो मेरे नहीं है, कर्म ने दिए है, इनका कभी भी वियोग हो सकता है, ऐसी संपत्ति का सदुपयोग करना चाहिए, ऐसा मानकर आत्मा को इन सबसे अलग रखता है । कदाचित् पुण्य की कमी से जीवन-निर्वाह योग्य सामग्री नहीं भी मिले, तो जो मिला उसमें चला लो, हाय-हाय करने की क्या जरुरत है, क्या साथ आएगा? इन भावों से ओतप्रोत होता है । आत्मानंद की ओर लक्ष्य होता है तो ये भावनाएँ आ जाती है । एक कल्पना किजीए, आपने पौषध किया है, आत्मा को पुष्ट करने वाली आराधना कर रात को घर आए है । छोटा पोता आकर आनंद से कहता है, 'दादा, दादा ! आज तो मैने एक साथ तीन सामायिक की । आप उसकी अनुमोदना करते है, उसे इनाम देते है । थोड़ी देर बाद बेटा घर आए और कहे, 'पिताजी ! आज व्यापारी से सौदे में २५ लाख रुपये कमाए ।' अब आप सोचिए कि पोते ने पहली बार तीन सामायिक साथ में की और बेटे ने भी पहली बार २५ लाख कमाए, दोनो में से आनंद किसमें ? आप कहेंगे कि दोनो में । तो सोचिए की ज्यादा आनंद किसमें ? अंतर में अर्थवासना बैठी है, जिसके कारण लाभ-रति होती ही रहती है। श्रीपाल को सिद्धचक्र के प्रभाव से अपार संपत्ति मिली, परंतु मन उसमें कभी रहा नहीं, इस तरह सिद्धचक्रमय हो गए । लूँ-लूँ की भावना नहीं थीं। अप्सरा जैसी मयणा मिलने पर भी आनंद नहीं । अपना साम्राज्य पाने की इच्छा से कमाने निकले है । पहली ही रात में गिरिकंदरा में साधको का श्रीपाल के प्रभाव से विद्या सिद्ध-रससिद्ध होने पर वे उपकार की भावना से स्वर्ण देते है, पर वो नहीं स्वीकारते । साधको की महेनत का है, इसलिए नहीं लिया जाता, ऐसी भावना है । सिद्धचक्र के प्रभाव से श्रीपाल को कितना मिला इसकी गिनती करते है, पर जरुरत के समय श्रीपाल ने कितना छोड़ा 270 श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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