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________________ भवाभिनंदी यानि ? भव संसार, अभि=तरफ, नंदन आनदं यानि जिसे संसार के भावों के तरह ही रहने पर आनंद होता है । जीव ३ प्रकार के । भवाभिनंदी, पुद्गलानंदी, आत्मानंदी (१) भवाभिनंदी को संसार ही अच्छा लगता है । (२) पुद्गलानंदी को संसार अच्छा नहीं लगता, पर मोहक पुद्गल सामने आते ही लुब्ध हो जाता है । (३) आत्मानंदी अपनी आत्मा में ही स्थिर होते है, पौद्गलिक भाव में नही फँसते । भवाभिनंदी जीव के आठ दूषण / लक्षण / चिह्न है । इन्हे समझकर इन्हे दूर करते की जरुरत है । जब तक ये दुर्गुण आत्मा पर जमे है, तब तक हमारी धर्मक्रियाएँ सबीज धर्मक्रिया नहीं बन सकती । उंबर में साहजिक रुप से ही ये दूषण नहीं है । उंबर भले कोढ़ी थे, सत्ता, संपत्ति, वैभव सब-चले गए पर उनका आत्म-वैभव अद्भुत था । आठो दुर्गुणो का अभाव और सद्गुणो का सद्भाव था । भूमिका की शुद्धि थी, इससे पहली बार की आराधना ही सबीज आराधना बनी। १) क्षुद्रता, (२) लाभरति, (३) दीनता, (४) मात्सर्य, (५) भय, (६) शठता, (७) अज्ञानता, (८) निष्फलारंभी. भवाभिनंदी के इन आठ दुर्गुणो को दूर करने, तोड़ने के लिए ही नवपद की आराधना है । एक-एक पद की आराधना से एक-एक दोष निकलने लगता है, आत्मगुण प्रगटते है और आत्मा दीप्त हो जाती है । उंबर राणा ने पूर्वभव में नवपद की आराधना से यह भूमिका पाई थी । उपादान की शुद्धि थी, जिससे आराधना प्रारंभ में ही खिलने लगी । नवपद के कौन से पद से कौन सा दोष टलता है और कौन सा गुण खिलता है, यह संक्षिप्त में देखते है - श्रीपाल कथा अनुप्रेक्षा
SR No.034035
Book TitleShripal Katha Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNaychandrasagarsuri
PublisherPurnanand Prakashan
Publication Year2018
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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