SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग जाते हैं। यह स्थूल अपराध किसी का, दण्ड किसी को कायोत्सर्ग से हम दुःख के उपादान तक पहुंच जाते हैं। शरीर दुख को प्रकट करने का हेतु है, किन्तु दुःख का उपादान न उपादान (मूल कारण) है-कार्मण शरीर | कायोत्सर्ग की स्थिति में हो के उपादान का दर्शन होता है। हमारा विरोध है उस कार्मण शरीर से जो हमें सता रहा है। एक सत्य स्थिर होता है कि कार्मण शरीर को क्षीण करना है, इस स्थल शरीर का सहयोग लेना है। स्थूल शरीर से सहयोग का मतलब है उसे स्थिर करना। चंचलता का चक्रव्यूह कार्मण शरीर ने अपने अस्तित्व की सुरक्षा की व्यवस्था कर रखी है। हमारा अतिसूक्ष्म शरीर-कार्मण शरीर हमारे समूचे तंत्र को संचालित कर रहा है। उसकी व्यवस्था का सबसे बड़ा सूत्र-सबसे बड़ा रहस्य है-चंचलता। चंचलता इसलिए कि अज्ञान बना रहे, जिससे चेतना को अपने अस्तित्व का पता न चले। यह एक ऐसा जाल है, जिसमें सब कुछ छिप जाता है। इतनी चंचलता, इतनी तरंगें, इतनी ऊर्मियां आ जाती हैं कि कुछ पता ही नहीं चलता। चंचलता नहीं होती, तो आत्मा कभी अपने स्वरूप में चला जाता, कोई संदेह नहीं। किन्तु एक चंचलता के कारण वह अपने स्वरूप से भाग रहा है। इस प्रकार चंचलता कर्म-शरीर की सुरक्षा-व्यवस्था का ही नहीं अपितु उसकी आक्रामक नीति का भी मुख्य आधार है। सर्वप्रथम चंचलता को समाप्त करना होगा। चंचलता को समाप्त करने की दिशा में सबसे पहला चरण है-कायोत्सर्ग। जब शरीर की प्रवृत्ति का निरोध होता है, तब सूक्ष्म शरीर-कार्मण शरीर को एक धक्का-सा लगता है। उसके चक्रव्यूह में एक गहरी दरार पड़ जाती है। कायोत्सर्ग में हम तो निश्चल होकर बैठ जाते हैं। स्थल शरीर का स्थिर होना सूक्ष्म शरीर के लिए विस्फोट होना है। बेचारा इतना काप उठता है कि उसे अनंत-अनंत परमाणुओं को उसी समय छोड़ देना पड़ता है। अनंत-अनंत परमाणु बिखरने लग जाते हैं। अपने अवयवों को तोड़कर गिरा देना होता है। वे टूटकर गिरने लग जाते हैं। कार्मण शरीर की पराजय का प्रारम्भ हो जाता है। Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy