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________________ ११ प्रेक्षाध्यान : आधार और स्वरूप का निरसन और विधेयात्मक भावों का विकास। अगर हम विधेयात्मक भावों की मुद्राएं ध्यान-काल में अथवा जीवन में निरन्तर काम में लें, तो भीतर में हमारे भाव भी उसी अनुपात में बदलते नजर आएंगे, इसलिए प्रेक्षाध्यान साधना में जिस प्रकार आसनों का महत्त्व है, उसी प्रकार मुद्राओं का भी है। अर्ह और महाप्राण-ध्वनि __ 'अर्ह' जैन जगत् का एक चर्चित एवं शक्तिशाली मन्त्र है। शरीर में मूल शक्ति का स्रोत है-प्राणशक्ति, ऊर्जा। अर्ह की ध्वनि से प्राणशक्ति सक्रिय होती है, हमारी भीतर विद्यमान किंतु सुषुप्त शक्तियां जागृत होती हैं, शक्ति-सम्पन्नता एवं अर्हता का बोध होता है। ध्वनिशास्त्र के अनुसार हमारी शरीर में उच्चारण के ८ स्थान हैं-उर, कंठ, शिर, जिहासूल, दन्त, नासिका, ओष्ठ और तालु। 'अहं' के सही उच्चारण से निर्मित बाह्य-ध्वनि-तरंगों से व्यक्ति प्रभावित होता है। उससे निश्चय पर पहुंचने में सहयोग मिलता है। __ 'अर्ह' के उच्चारण स्थान-'अ' का उच्चारण कंठ से होगा। 'र' मूर्धा से होगा, 'ह' का. उच्चारण कंठ से होगा, 'म' का होठ से होगा। 'र' के उच्चारण के समय होठ खुले रहेंगे या इसके बाद जैसे ही 'म' का उच्चारण करेंगे, होठ बन्द हो जायेंगे। शरीर-शास्त्रीय दृष्टिकोण-प्रेक्षा ध्यान के सन्दर्भ में-'अ' का उच्चरण-स्थान कंठ है। यह थाइराइड ग्रंथि का स्थान है। यह चयापचय का उत्तरदायी है। यहां के स्राव मन व शरीर को प्रभावित करते हैं। 'है' का प्रभाव मस्तिष्क के अगले हिस्से यानी शांति-केन्द्र पर जो हाइपोथेलेमस का स्थान है। यह भावना .का स्थान, सूक्ष्म व स्थूल शरीर का केन्द्र-बिंदु, मध्यवर्ती हृदय का स्थान है। ये सभी इससे प्रभावित होते हैं। - होठ से उच्चारित होने वाला 'म' उदान नामक प्राण का केन्द्र है। उदान सिद्धियां देने वाली प्राणशक्ति है। 'अर्ह' साधकों का इष्ट है। यह 'अर्हत्' का बीजमन्त्र है। अपनी क्षमताओं को प्रगट करने की अर्हता जाग जाए-वह अर्हत होता है। आनन्द-केन्द्र थाइमस ग्रन्थि का प्रभाव क्षेत्र है। यह सूचक है कि Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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