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________________ प्रेक्षाध्यान : आधार और स्वरूप आदमी प्रतिक्रिया का जीवन जीता है। वह बाह्य वातावरण और परिस्थिति से प्रभावित होकर कार्य करता है। वह आवेग या उत्तेजना के वशीभूत होकर कार्य करता है। यह प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं। अध्यात्म-साधना का अर्थ है-प्रतिक्रिया से बचना। साधक क्रिया करे, प्रतिक्रिया नहीं। अन्यथा गाली के प्रति गाली, ईंट का जबाव पत्थर से, "शठे शाठ्यं समाचरेत्" "Tit for Tat"-ये सब बातें चलती हैं, इन्हें रोका नहीं जा सकता। इन्हें केवल वही व्यक्ति रोक सकता है, जिसने इस सचाई को समझ लिया है कि स्वतन्त्र अस्तित्व का धनी आदमी प्रतिक्रिया का जीवन न जीए। वह क्रिया का जीवन जीए। ३. मैत्री उपसंपदा का तीसरा सूत्र है-मैत्री। साधक का पूरा व्यवहार मैत्री से ओतप्रोत हो। उसमें मैत्री की भावना का पूर्ण विकास हो। यह तभी संभव है, जब व्यक्ति से सर्वथा मुक्त हो जाता है। तब मैत्री स्वयं फलित होती है। ४. मिताहार उपसंपदा का चौथा सूत्र है-मिताहार | परिमित भोजन का महत्त्वपूर्ण स्थान है साधना में। भोजन का प्रभाव केवल स्वास्थ्य पर ही नहीं होता, ध्यान और चेतना पर भी उसका प्रभाव होता है। आदमी अनावश्यक बहुत खाता है। अनावश्यक भोजन विकृति पैदा करता है। खाया हुआ पच नहीं पाता, क्योंकि उसको पचाने वाला रस पूरी मात्रा में नहीं मिलता। भोजन उतना ही पचता है, जितना उसे पाचन-रस प्राप्त होता है। शेष व्यर्थ हो जाता है। उससे सड़ांध पैदा होती है। मल आंतों में जम जाता है। इससे सारा नाड़ी-मण्डल दूषित हो जाता है। इससे मन और विचार भी दूषित होते हैं। चेतना पर आवरण आता चला जाता है। साधक को भोजन का पूरा ज्ञान होना चाहिए और कौन-सा भोजन क्या परिणाम लाता है, उसका भी ज्ञान होना चाहिये। ५. मौन उपसम्पदा का पांचवां सूत्र है-मितभाषण या मौन। बोलना इसलिए जरूरी होता है कि हम जन-संपर्क में हैं। बोले बिना रहा नहीं जाता। किन्तु कम बोलना साधना है। इसका अर्थ यह नहीं कि जीवन भर मौन रहें। अनावश्यक न बोलें। बोलना पड़े, तो धीमे बोलें। यह मध्यम मार्ग अच्छा है। इससे व्यवहार भी नहीं छूटता और शक्ति का अनावश्यक व्यय Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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