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________________ १५० प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग अनेक बाइया उत्पन्न होती हैं, आदमी इनको छोड़ने में कठिनाई अनभव करता है। अगर बुरी आदतों के अनुकरण और अभ्यास से व्यक्ति बुरा बनता है. तो अच्छी आदतों का अनुकरण और अभ्यास का अनुकरण और अभ्यास करवाकर अच्छे नागरिक क्यों नहीं बनाए जा सकते ? यही अनुप्रेक्षा और भावना का कार्य है, जिसका अधिकतम उपयोग शिक्षा के क्षेत्र में 'मूल्यपरक शिक्षा' के लिए किया जा सकता है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण ध्यान का अर्थ है प्रेक्षा, देखना। उसकी समाप्ति होने के पश्चात् मन की मूर्छा को तोड़ने वाले विषयों का अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। जिस विषय का अनुचिन्तन बार-बार किया जाता है या जिस प्रवृत्ति का बार-बार अभ्यास किया जाता है, उससे मन प्रभावित होता है, इसलिए उस चिन्तन या अभ्यास को भावना कहा जाता है। जिस व्यक्ति को भावना का अभ्यास हो जाता है उसमें ध्यान की योग्यता आ जाती है। ध्यान की योग्यता के लिए चार भावनाओं का अभ्यास आवश्यक है : १. ज्ञान भावना-राग-द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव से जानने का अभ्यास। २. दर्शन भावना-राग-द्वेष और मोह से शून्य होकर तटस्थ भाव से देखने का अभ्यास। ३. चरित्र भावना-राग-द्वेष और मोह से शून्य समत्वपूर्ण आचरण का अभ्यास। ४. वैराग्य भावना-अनासक्ति, अनाकांक्षा और अभय का अभ्यास। __ मनुष्य जिसके लिए भावना करता है, जिस अभ्यास को दोहराता है, उस रूप में उसका संस्कार निर्मित हो जाता है। यह आत्म सम्मोहन की प्रक्रिया है। इसे 'जप' भी कहा जा सकता है। आत्मा की भावना करने वाला आत्मा में स्थित हो जाता है। ‘सोऽहं' के जप का यही रहस्य है। 'अर्हम्' की भावना करने वाले में 'अर्हम्' होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। कोई व्यक्ति भक्ति से भावित होता है, कोई ब्रह्मचर्य से और कोई सत्संग से। अनेक व्यक्ति नाना भावनाओं से भावित होते हैं। जो किसी भी कुशल कर्म से अपने को भावित करता है, उसकी भावना उसे लक्ष्य की ओर ले जाती है। Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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