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________________ प्रेक्षाध्यान सिद्धान्त और प्रयोग है. फिर अनेक स्पन्दन दीखने लग जाते हैं। वृत्तियां या संस्कार जब उभरते हैं. तब उनके स्पन्दन होने लग जाते हैं। पूरा का पूरा दोष चक्र प्रत्यक्ष होने लग जाता है। इस तथ्य को प्रकट करते हुए आयारो ( आचारांग सूत्र) में बताया गया है, "जो क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रियता, अप्रियता आदि दोषों को अपने भीतर देख लेता है, वह जन्म, मृत्यु और दुःख के समग्र चक्रव्यूह को तोड़ देता है।" "महान् साधक अकर्म (ध्यानस्थ ) होकर मन, वचन और शरीर की क्रिया का निरोध कर जानता देखता है । " " द्रष्टा के लिए कोई निर्देश की अपेक्षा नहीं है, उसके कोई उपाधि नहीं होती । " जब हम देखते हैं, तब सोचते नहीं हैं और जब हम सोचते हैं, तब देखते नहीं हैं। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे पहला और सबसे अन्तिम साधन है देखना । कल्पना के चक्रव्यूह को तोड़ने का सबसे सशक्त उपाय है - देखना । आप स्थिर होकर अनिमेष चक्षु से किसी वस्तु को देखें, विचार समाप्त हो जाएंगे। विकल्प-शून्य हो जाएंगे। आप स्थिर होकर अपने भीतर देखें - अपने विचारों को देखें या शरीर के प्रकंपनों को देखें, तो आप पाएंगे कि विचार स्थगित है और विकल्प शून्य हैं। भीतर की गहराइयों को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर को देखने लगेंगे। जो भीतरी सत्य को देख लेता है, उसमें बाहरी सत्य को देखने की क्षमता अपने आप आ जाती है । देखना वह है, जहां केवल चैतन्य सक्रिय होता है। जहां प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, राग-द्वेष उभर जाए, वहां देखना गौण हो जाता है। यही बात जानने' पर लागू होती है । हम पहले देखते हैं, फिर जानते हैं। इसे इस भाषा में स्पष्ट किया जा सकता है कि हम जैसे-जैसे देखते जाते हैं, वैसे-वैसे जानते चले जाते हैं । जो पश्यक है जाता - द्रष्टा है, उसका दृश्य के प्रति दृष्टिकोण ही बदल | माध्यस्थ्य या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है । जो देखता है, वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय दोनों की उपेक्षा करता है-दोनों को निकटता से देखता है। और उन्हें निकटता से देखता है, Scanned by CamScanner
SR No.034030
Book TitlePreksha Dhyan Siddhant Aur Prayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2003
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size80 MB
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