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________________ सप्तम अध्याय अहिंसा के आध्यात्मिक व्याख्याता : कानजीस्वामी बीसवीं सदी के प्रख्यात विचारक कानजीस्वामी का जन्म सौराष्ट्र के उमराला गाँव में विक्रम संवत् 1947 वैशाख सुदी दूज को हुआ था, उन्होंने विक्रम संवत् 1970 को मागशिर सुदी नवमी, रविवार के दिन उमराला में श्री हरीचन्दजी नामक श्वेताम्बर मुनि से दीक्षा ले ली। ___दीक्षा के उपरान्त आपने शास्त्रों का कड़ा अभ्यास किया। विक्रम संवत् 1978 में आचार्यश्री कुन्दकुन्ददेवप्रणीत 'समयसार' नामक महान् आध्यात्मिक ग्रन्थ उनके हाथ लगा। इस महान् ग्रन्थ को पढ़कर उन्हें महान् सत्य की उपलब्धि हो गई, जिसकी खोज में वे शुरु से ही भटक रहे थे। अपनी खोई हुई आत्मनिधि को प्राप्त करने के बाद श्री कानजीस्वामी ने जैनागमों की आध्यात्मिक व्याख्याएँ की और छुपे रहस्य को उजागर किया। प्रचलित कोरे अध्यात्मशून्य क्रिया-कलापों से आपको दुःख होता था। आपने अपने हजारों प्रवचनों में यह सिद्ध किया कि आत्म-विस्मृति ही सबसे बड़ा अपराध है। आत्मविशुद्धि तथा आत्मानुभूति के लक्ष्य से की गयी व्यवहारिक क्रियाएँ ही सार्थक हैं। यदि निजात्मा को भूलकर कोरे क्रियाकाण्ड में ही धर्म मानते रहेंगे तो मुक्ति सम्भव नहीं है। पूर्णता के लक्ष्य से की गयी शुरुआत ही सच्ची शुरुआत है'- यह आपका प्रसिद्ध वाक्य है। समयसार ग्रन्थ में प्ररूपित वास्तविक वस्तुस्वभाव और वास्तविक निर्ग्रन्थ परम्परा उन्हें बहुत समय से भीतर में सत्य प्रतीत होती थीं और बाह्य में वेश तथा आचरण सवस्त्र साधु जैसा था - यह विपरीत स्थिति उन्हें खटकती थी इसीलिए उन्होंने सोनगढ़ में विक्रम संवत् 1992 की चैत्र त्रयोदशी, महावीर जयन्ती के दिन स्थानकवासी सम्प्रदाय के वेश का त्याग कर दिया और दिगम्बर आम्नाय की विशुद्ध परम्परा को एक सामान्य सच्चे गृहस्थ के रूप में स्वीकार किया। 'यह कर्तृत्वबुद्धि ज्ञान के बिना नहीं छूटती इसलिए तुम ज्ञान प्राप्त करो' - यह उनके उपदेश का प्रधान स्वर था। अपनी ज्ञानाराधना करते हुए विक्रम संवत् 2037, मगसिर कृष्णा सप्तमी,
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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