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________________ 68 अहिंसा दर्शन जो ज्ञानी मनुष्य यह जानता है कि आत्मा अविनाशी, अजन्मा, शाश्वत और अव्यय है, वह भला किसी को कैसे मार सकता है या मरवा सकता है ? प्रथम शती के आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार नामक ग्रन्थ में कहा कि केवल व्यावहारिक दृष्टि से जीव और शरीर एक है क्योंकि जीव, शरीर में रहता है किन्तु निश्चयदृष्टि या वास्तविक परमार्थ दृष्टि से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं हैं - ववहारणओ भासदि, जीवो देहो य हवदि खलु एक्को। दु णिच्छवस्य जीवो, देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥' यद्यपि शरीर के संयोग के कारण पर्यावदृष्टि से जीव (आत्मा) भी अनित्य कहलाता है तथापि वह स्वरूपतः द्रव्यदृष्टि से नित्य एवं अविनाशी है। जब भी जीवों की हिंसा-अहिंसा की चर्चा होती है, तब यह सिद्धान्त हमारे समक्ष उपस्थित होता है कि जब आत्मा का जन्म या मरण ही नहीं होता, तब हिंसा किसकी होती है ? यदि कहा जाए कि शरीर की हिंसा होती है तो प्रश्न उत्पन्न होता है कि शरीर तो जड़ ( अचेतन) है और जड़ की हिंसा नहीं हो सकती। इस दुनिया में जब प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है तथा उसका प्रत्येक परिणमन भी स्वतन्त्र रूप से हो रहा है, तब वहाँ कोई किसी को मारता है या जिन्दा करता है - यह बात कहाँ से आयी ? साथ ही प्रत्येक जीव का जीवन उसके आयुकर्म के स्वाधीन है और मृत्यु आयुकर्म पूर्ण होने पर ही होती है अर्थात् जब तक आयुकर्म शेष है, तब तक मृत्यु नहीं हो सकती तो किसी भी जीव की हिंसा कैसे हो सकती है ? वीतरागी क्रिया से बन्धन नहीं आत्मा में रागादि विकारीपरिणामों की उत्पत्ति होने पर ही हिंसा होती है, अन्यथा नहीं होती। जिस प्रकार कोई व्यक्ति, शरीर पर तेल लगाकर 1. समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द, गाथा - 37
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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