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________________ चतुर्थ अध्याय किसी जीव की मृत्यु होने में उसकी अपनी आयु उसका अपना प्रारब्ध आदि अनेक कारण होते हैं; इसलिए जरूरी नहीं कि बाह्य हिंसा सफल हो ही जाए। तब क्या असफलता की दशा में उसे अहिंसा कहा जाएगा ? नहीं, बल्कि हिंसा की भावना, योजना, और प्रयास, ये तीनों ही हिंसा के लिए पर्याप्त कारण हैं; अतः हिंसा का प्रारम्भ अन्तरङ्ग से ही होता है, भले वह दिखायी नहीं देता । 57 किसी परजीव की मृत्यु मात्र भी हिंसा नहीं है, जबकि यहाँ बाह्य हिंसा प्रत्यक्षतः दिखायी दे रही है जैसे किसी प्राकृतिक प्रकोप में हजारों लोग मारे गए। यद्यपि यहाँ हिंसा ही हिंसा दिखाई दे रही है किन्तु यहाँ हिंसा का दोष किसी प्राणी को नहीं लगेगा क्योंकि यहाँ किसी जीव ने ऐसा करने का विचार तक नहीं किया है। इसी प्रकार डॉक्टर द्वारा किसी मरीज को बचाने की लाख कोशिश करने पर भी यदि उसकी मृत्यु हो जाती है तो डॉक्टर को उसकी हिंसा का दोषी नहीं माना जाता है क्योंकि उसके मन में मरीज को बचाने का ही भाव था, न कि मारने का । हिंसा के कारण ‘मेरे सम्प्रदाय में आओगे, उसे ग्रहण कर लोगे तभी तुम्हारी मुक्ति होगी, अन्यथा नहीं होगी' - इस धारणा ने साम्प्रदायिक कट्टरता और हिंसा को एक साथ जन्म दिया है। प्रायः यह विचार सामने आता है कि धर्म के कारण बहुत रक्तपात हुआ, हिंसा की होली खेली गई, युद्ध हुए इत्यादि किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। यह सब धर्म के कारण नहीं हुआ किन्तु धर्म के नाम पर धर्म-परिवर्तन कराने की अवधारणा के आधार पर हुआ । मनुष्य में सहज ही विस्तार करने की भावना होती है, वह अपने आपको बड़ा बनाना चाहता है, अपने अनुयायियों की संख्या भी बढ़ाना चाहता है। 'जैसा मैं सोचूँ, वैसा सभी सोचें; जैसा मैं करूँ, वैसा सभी करें; सभी मेरा अनुसरण करें' यह चाह, एक अदम्य चाह है। इसी चाह ने
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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