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________________ अहिंसा दर्शन 2. वाचिक अहिंसा - हिंसा का द्वितीय स्तर वाचिक हिंसा हैं। सर्वप्रथम मनुष्य हिंसा का विचार मन में लाता है फिर अपने वचनों के द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है। कई बार जनसभाओं में ऐसे-ऐसे भाषण दिए जाते हैं कि जनसमुदाय भड़क जाता है और हिंसा पर उतारू हो जाता है, यह वाचिक हिंसा का एक रूप है। अपने वचनों के माध्यम से ऐसे शब्दों का प्रयोग करना, जिससे किसी व्यक्ति, परिवार, समाज या राष्ट्र की शान्ति भङ्ग हो या उन्हें दुःख पहुँचे, वाचिक हिंसा है। व्यावहारिक रूप में गाली देना, किसी की निन्दा करना, अपशब्दों का प्रयोग करना - यह सब वाचिक हिंसा है और ऐसा नहीं करना वाचिक अहिंसा है। कई बार लोगों को अनावश्यक बड़बड़ाने या व्यर्थ का अधिक बोलने की आदत होती है, उनसे अनायास ही वाचिक हिंसा होती रहती है; अतः वाणी पर संयम रखना ही वाचिक अहिंसा है। किसी महापुरुष ने कहा है कि अनावश्यक बोलो ही मत; जरूरत पड़े तो कम बोलो; वह भी बहुत विचारपूर्वक नाप-तोल कर बोलो; जो भी बोलो, हित-मित-प्रिय बोलो। संयमित वचनों से हमारा व्यक्तित्व निखरता है। 3. कायिक अहिंसा - मनुष्य का मन पर संयम नहीं रहता तो वह मानसिक हिंसा करता है, उससे आगे वचनों पर संयम नहीं रहता तो वह वाचिक हिंसा करता है और इसके बाद वह कायिक हिंसा पर उतर आता है। अपने शरीर की क्रियाओं के द्वारा किसी भी प्राणी का अहित करना, कायिक हिंसा है। स्वयं हाथ-पैर चलाकर किसी की जान लेना, उसे तकलीफ पहुँचाना, अङ्गों के इशारों से किसी दूसरे को हिंसा की अनुमति या आदेश देना या फिर क्रोध में आकर स्वयं के अङ्गों का घात करना, कायिक हिंसा है। अनेक स्थितियों में मनुष्य जाने-अनजाने भी कायिक हिंसा का दोषी बनता है। इसे अनर्थदण्ड कहा गया है। पार्क या बगीचों में रास्ते पर
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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