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________________ प्रथम अध्याय मनुष्यता की परिभाषा यदि एक ही शब्द में करने की आवश्यकता पड़े तो 'अहिंसा' के अतिरिक्त कोई दूसरा शब्द खोजना कठिन होगा, जो मानवता की गरिमा का संपूर्ण रूप से वहन कर सके। अहिंसा की परिभाषा हिंसा और अहिंसा की परिभाषा अपनी सुविधा के अनुसार नहीं हो सकती क्योंकि 'न हि भैषजमातुरेच्छानुकारि' अर्थात् रोगी की इच्छा के अनुसार दवा नहीं दी जा सकती, वह रोग और उसकी प्रकृति के अनुसार डॉक्टर या वैद्य के विवेक के आधार पर ही दी जाती है; अत: हिंसा-अहिंसा के मूलस्वरूप को समझना आवश्यक है। तत्त्वार्थसूत्र नामक पहली शताब्दी के संस्कृत ग्रन्थ में आचार्य उमास्वामी ने हिंसा की परिभाषा दी - 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमादभाव के कारण किसी प्राणी के प्राणों का घात करना, हिंसा है। यहाँ हिंसा का अर्थ, मात्र प्राणों का हरण करना ही नहीं है। गाली देना, पीटना, अङ्ग-भङ्ग करना, दु:ख देना इत्यादि के भाव एवं क्रियाएँ भी हिंसा के अन्तर्गत आती हैं। जैसे, एक मनुष्य भारत में रहता है और दूसरा मनुष्य अन्यत्र किसी दूसरे देश में रहता है। वह वहाँ बैठा-बैठा यहाँ रहने वाले व्यक्ति के प्रति अनिष्ट चिन्तन करता है, उससे यहाँ रहने वाले व्यक्ति का अनिष्ट होता है या नहीं - यह तो बाद का प्रश्न है, पर अनिष्ट चिन्तन करने वाला व्यक्ति निश्चितरूप से अशान्त व हिंसक होता ही है। हिंसा का सम्बन्ध मूलत: व्यक्ति की अपनी वृत्तियों या भावों से है। वृत्तियों के पतन से हिंसा अवश्यम्भावी है। जहाँ वृत्ति सम्यक् होती है, वहाँ हिंसा नहीं होती। इस तत्त्व को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि हिंसा का अर्थ है - मन, वाणी और काया का अनियन्त्रण अर्थात् प्रमाद। मन, वाणी और काया पर विवेक का अंकुश न रहे - यह हिंसा है, जबकि अहिंसा है - मन, वचन और काया का संयम अर्थात् अपनी हर प्रवृत्ति पर विवेक का अंकुश। 1. तत्त्वार्थसूत्र 7.13
SR No.034026
Book TitleAhimsa Darshan Ek Anuchintan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherLal Bahaddur Shastri Rashtriya Sanskrit Vidyapitham
Publication Year2012
Total Pages184
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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