SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सौ आदमी बैठे हैं। उनको देखो तो लगेगा-बिल्कुल शांति से बैठे हैं। पर उनके भीतर क्या हो रहा है? मन क्या सोच रहा है? भाव क्या हैं? क्या उसका हमें पता लगता है? बाहर का रूप तो एक सा लगता है किन्तु भीतर में हर व्यक्ति अलग-अलग है। अनेक व्यक्तियों में नहीं, एक व्यक्ति में भी द्वंद्व होता है। हमारे भीतर औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव-दोनों की प्रणालियां हैं। दो नाले बह रहे हैं एक गाथा औदयिक भाव का, कर्म के उदय का। दूसरा क्षायोपशमिक भाव का। मनोविज्ञान की भाषा में एक है परम विजय की विधेयात्मक भावधारा, दूसरी है निषेधात्मक भावधारा। एक ही आदमी अलग-अलग प्रकार से सोचता है। कभी उसके मन में आता है कि आत्मा का कल्याण करो। चलते-चलते मन में कभी भय, वासना आदि का संवेग भी आ जाता है, बुरा विचार भी आ जाता है। ऐसा क्यों होता है? यह खंडित या द्वंद्वात्मक व्यक्तित्व है। दोनों प्रकार की विचारधाराएं एक ही मनुष्य में उत्पन्न होती रहती हैं-कभी अच्छी आ जाती है और कभी बुरी भी आ जाती है। ___ भीतर का जगत् बड़ा विचित्र होता है। उसे समझना बहुत आवश्यक भी है। धर्म का सबसे बड़ा काम यह है कि भीतर के जगत् की पहचान कराई जा सके। अपने भीतरी जगत् को हम देख सकें, पहचान सकें। ___ जम्बुकुमार भीतर के जगत् में यात्रायित हो गया। उसने सोचा-मैंने सफलता को देखा और सफलता के पीछे छिपे हुए पुण्य को देखा। पुण्य सफलता दिला रहा है। मैंने उस भाग्य को देखा, जो सफलता की पृष्ठभूमि का सृजन कर रहा है। पूर्वजन्म को देखा, उस पर चिंतन किया तो लगा सफलता का हेतु है पूर्वकृत पुण्य या भाग्य। जिसकी जन्मकुण्डली में भाग्य तेज होता है, ज्योतिषी भी कहते हैं इसको कोई चिंता नहीं है, इसका भाग्य बड़ा प्रबल है। यह सर्वत्र सफल होगा, कहीं विफलता नहीं मिलेगी। भाग्य कमजोर होता है तो कितना ही बुद्धिमान हो, पैर लड़खड़ा जाते हैं। सफल नहीं होता। ऐसे लोगों को देखा है, जो बहुत होशियार और चतुर थे किन्तु भाग्य की रेखा प्रबल नहीं थी। वे सोचते, बड़ी कल्पना करते पर होता कुछ भी नहीं। ६८ .
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy