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________________ गाथा परम विजय की शक्ति बहुत बढ़ जाती, उसका ज्ञान और विवेक बहुत बढ़ जाता किंतु एक आवेश के कारण बहुत सारी शक्तियां नष्ट हो जाती हैं। बड़ा कठिन काम है अहंकार का। जम्बूकुमार की बात को सुन रत्नचूल और अधिक आवेश में आ गया, बोला-'तुम कौन हो रोकने वाले? यह मेरे बंधन में आ गया। मैंने इसको बांध दिया। अब तुम क्यों रोकते हो?' जम्बूकुमार ने रत्नचूल का पथ रोकते हुए कहा–रत्नचूल! मेरे रहते हुए तुम मृगांक को नहीं ले जा सकते। तुम्हारा यह दुस्साहस सफल नहीं होगा। रे रे मूढ! क्व यासि त्वं, नीत्वैनं मृगलाञ्छनम्। मयि विद्यति भूपीठे, को हि द्रष्टुमतिक्षमः।। रत्नचूल! सांप के सिर में मणि होती है पर क्या कोई समझदार आदमी सांप के सिर पर हाथ डालेगा? मणि निकालने का प्रयत्न करेगा?' रत्नचूल ने स्पष्ट स्वर में कहा-'यह मृगांक मेरे हाथ में आ गया अब तुम इसे छुड़ाना चाहते हो? रखना चाहते हो? कुमार! ऐसा मत करो, मुझे ले जाने दो।' जम्बूकुमार ने कहा-'यह हो नहीं सकता। मैं यहां हूं। मैं अन्याय नहीं करने दूंगा, ले जाने नहीं दूंगा। यह महान् आश्चर्य है कि मेरा अतिक्रमण कर इसे ले जाते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आ रही है। रत्नचूल! तुम कितना ही प्रयत्न करो। तुम मृगांक को ले जा नहीं सकते।' ___ रत्नचूल आवेश में अतीत को भूल गया, बोला-'कुमार! अगर इतना अहंकार है तो तुम भी युद्ध के लिए आ जाओ।' __ आदमी एक बार जीत जाता है तो पुरानी बात को भूल जाता है। रत्नचूल बोला-'मृगांक के साथ इतने तुम जुड़े हुए हो तो आओ, तुम भी आ जाओ। अभी तो मौका है, लड़ाई हो रही है।' जम्बूकुमार ने कहा-'मैं तैयार हूं।' मृगांक और रत्नचूल की लड़ाई समाप्त हुई। जम्बूकुमार और रत्नचूल की लड़ाई शुरू हो गई। रत्नचूल ने सोचा-सबसे अच्छा अस्त्र है नागपाश। इस अस्त्र का प्रयोग करूं और जम्बूकुमार को भी बंदी बना लूं। एक ओर मृगांक दूसरी ओर जम्बूकुमार-दोनों नागपाश से बंध जायेंगे, आपस में बैठे-बैठे बातें करते रहेंगे। रत्नचूल ने तत्काल विद्या का प्रयोग किया, भयंकर नागपाश प्रस्तुत हुआ। जम्बूकुमार को गारुडी विद्या सिद्ध थी। उसने गारुडी विद्या का प्रयोग किया। जब गारुडी विद्या आती है, नाग का पता ही नहीं लगता। नाग कहीं गायब हो गया। मुमोच रत्नचूलोऽसौ, नागास्त्रं स्वामिनं प्रति। न्यक्कृतं तत्कुमारेण, गारुडास्त्रेण तत्क्षणात्।। जम्बूकुमार बंदी नहीं बना। उसके मन में थोड़ा-सा आवेश भी आ गया, सोचा-कैसा कृतघ्न राजा है? इतना हो गया फिर भी अहंकार नहीं छूट रहा है। मुझ पर भी मारक प्रयोग कर रहा है।' ६७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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