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________________ नींद में हमारी चेतना वश में नहीं रहती। नींद में जब होते हैं तब यह चेतन मन निष्क्रिय बन जाता है, अवचेतन मन काम करने लग जाता है। अवचेतन मन पर नियंत्रण करना बहुत कठिन है किन्तु जो जागरूक साधक होता है वह उस पर भी नियंत्रण कर लेता है। रामायण का प्रसंग है। महासती सीता को धीज कराने के लिए ले जाया गया। अग्निकुण्ड सामने है। उस अग्निकुण्ड पर खड़ी होकर महासती सीता कह रही है- 'अग्नि ! तुम मेरे विकृत और सकृत- दोनों की साक्षी हो। मैं तुमसे कहना चाहती हूं कि रघुपति रामचन्द्र के सिवाय मेरा मन किसी दूसरे के प्रति गया हो । मन में, वचन में, काया में, जागृत अवस्था में और स्वप्न में किसी दूसरे के प्रति पति का भाव आया हो तो तुम मुझे जला देना।' मनसि वचसि काये जागरे स्वप्नमार्गे, यदि मम पतिभावो राघवादन्यपुंसि । तदिह दह शरीरं पावकं मामकेदं, विकृतसुकृतभाजां येन साक्षी त्वमेव । । सबसे जटिल बात कह दी—– जागृत अवस्था में और नींद में भी, सपने में भी अगर मेरा मन कहीं गया हो तो तदिह दह शरीरं-इस शरीर को तुम जला डालना । यह कितनी मार्मिक बात है। आदमी यह तो कह सकता है कि जागते हुए मैंने कुछ नहीं किया और नींद मेरे वश की बात नहीं है पर जो चौबीस घंटा जागरूक रहता है वह नींद में भी अकरणीय कार्य नहीं करता। उसकी चेतना बराबर जागृत बनी रहती है। बहुत अच्छी बात कही गई—अमुनि, अज्ञानी सदा सोता है और ज्ञानी आदमी सदा जागता है। सदा जागने का अभ्यास है भावक्रिया । हम जो भी काम करें, जानते हुए करें। व्याख्यान सुनें तो मैं सुन रहा हूं-यह जागरूकता रहे। रोटी खायें तो यह ज्ञान रहे कि मैं रोटी खा रहा हूं, कोर तोड़ा है, हाथ ऊपर जा रहा है, मुंह में डाल रहा हूं, जीभ पर चला गया है, अब दांत अपना काम कर रहे हैं, चबा रहे हैं और चबाने के बाद मैं निगल रहा हूं, उदर में भी चला गया है। हर क्रिया के साथ चेतना जुड़ी रहे तो जागरूकता बढ़ जाती है। प्रत्येक क्रिया जानते हुए करना - यह बहुत बड़ा अभ्यास है । हम कोई भी धर्म की क्रिया करें तो जानते हुए करें। माला गिनें तो जानते हुए गिनें कि माला गिन रहा हूं, ध्यान माला में रहे। सामायिक करें तो हमारी जागरूकता रहे कि मैं सामायिक कर रहा हूं। शून्यता न आए। जैन ध्यान पद्धति में सबसे ज्यादा बल इस बात पर दिया कि शून्यता में मत जाओ । शून्यता द्रव्य क्रिया है। शून्य होना कोई ध्यान नहीं है। चेतना का उपयोग बराबर रहना चाहिए। मैं क्या कर रहा हूं? क्या सोच रहा हूं? बराबर इसका खयाल हमें रहना चाहिए। चलें तो यह ध्यान रहे कि मैं चल रहा हूं। हर क्रिया में चेतना साथ रहती है तो जागरूकता बढ़ जाती है। भाव क्रिया का अभ्यास करने वाला व्यक्ति चौबीस घंटा ध्यान की स्थिति में रह सकता है। यह कालबद्ध नहीं होता, यह काल की सीमा से परे है। निरंतर ध्यान की अवस्था - सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते । जागरूकता की यह स्थिति बनती है तो लक्ष्य की ओर हमारी गति तेज हो जाती है। मुनि जम्बूकुमार ने इतनी जागरूकता विकसित कर ली । भेद - विज्ञान की साधना और निरन्तर जागरूकता। एक ही आत्मा का ध्यान, उस ध्यान में चलते गये, चलते गये। साधना करते-करते बीस वर्ष पूरे हो रहे हैं। पढ़ाई तो बारह वर्ष की होती है । आजकल थोड़ी ज्यादा होती है। व्यक्ति बी. ए. करता है, ३६४ m गाथा परम विजय की (
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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