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________________ (2) (ch । गाथा परम विजय की सोचा आज सचमुच हमें यह उपदेश शुभंकर लग रहा है। अब तक अज्ञान का अंधकार हमारी आंखों में छाया हुआ था। हम खुली आंखों से भी सचाई को नहीं देख रहे थे। अज्ञानवश हमने कितने लोगों को सताया, कितने लोगों को दुःखी बनाया। इस थोड़े से जीवन के लिए हमने घोर दुष्कर्म किए हैं। आज प्रभव और जम्बूकुमार ने अज्ञान तिमिर से अंधी बनी हुई आंखों में ज्ञानांजन शलाका से ऐसा अंजन आंजा है कि हमारे अंतश्चक्षु उद्घाटित हो गए हैं। ये सचमुच हमारे गुरु हैं, हितचिन्तक हैं। हमें इनकी बात को शिरोधार्य करना चाहिए अज्ञानतिमिरान्धानां, ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन, तस्मै श्रीगुरवे नमः।। ___ हमारा स्वामी प्रभव जो कह रहा है, वह बिल्कुल सही बात है। हमें भी सोचना चाहिए, चिंतन करना चाहिए। मन में एक उद्वेलन, आंदोलन और प्रकंपन हो गया। __ प्रभव ने उन्हें पुनः उत्प्रेरित किया-'बंधुओ! चोरी हम करते हैं, बुरा काम हम करते हैं। उससे जो धन दौलत मिलती है, उसे पूरा परिवार भोगता है। मुझे आज यह बोध भी मिला है कि चोरी का पाप केवल हमें लगेगा, कर्म का बंध केवल हमारे होगा, दुःख केवल हम भोगेंगे। इस दौलत के सुख को भोगने वाले परिवार के सब लोग हैं किन्तु कर्म का बंध और दुःख हमारे ही हिस्से में आएगा।' 'साथियो! मैं तुम्हें एक घटना सुनाऊं?' 'हां, स्वामी!' प्रभव ने घटना सुनानी शुरू की-एक डाकू रोज डाका डालता था। एक दिन वह संत के पास चला गया। संत ने उसके मुख को देखा, आकार-प्रकार को देखा तो समझ गये कि यह कोई दुर्दान्त डाकू है। संत ने पूछा-'भाई कहां से आए हो?' 'जंगल में रहता हूं।' 'क्या काम करते हो?' 'महाराज! आपसे क्या छिपाऊं? मैं डाकू हूं।' 'भाई! यह तो बहुत बुरा काम है।' 'महाराज! क्या करें। बड़ा परिवार है। आजीविका का कोई साधन नहीं है। मैं अकेला कमाने वाला हूं। एक-दो दिन में इतना मिल जाता है कि वर्ष भर की चिन्ता मिट जाती है।' 'भाई! वर्तमान की चिन्ता तो मिट जाती है पर बुरे कर्म का परिणाम भी तो बुरा होता है?' ____ हां, महाराज! पर परिवार के भरण-पोषण का और कोई उपाय नहीं है।'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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