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________________ रहें। हमारी विवेक चेतना जागे। हम जान सकें कि यह प्रेय है और यह श्रेय है। हमारे लिए यह प्रिय है और यह कल्याणकारी है।' 'प्रभव! हम मनुष्य हैं। हमें विकसित मस्तिष्क मिला है। क्या हम श्रेय की उपेक्षा करें?' 'नहीं कुमार!' 'प्रभव! श्रेय का ज्ञान एक पशु को भी होता है।' एक डॉक्टर ने भोज का आयोजन किया। बड़े-बड़े लोगों को बुलाया। भोज का समय। टेबल पर सारा भोजन सजा हुआ है। भोजन शुरू करने का क्षण सामने है। डॉक्टर खड़ा हुआ, बोला-'अतिथिगण! हम भोजन शुरू करेंगे। पर मैं एक बात पूछना चाहता हूं कि हम आदमी की तरह खायें या पशु की तरह?' __सबको बड़ा आश्चर्य हुआ, इतना पढ़ा-लिखा डॉक्टर कैसा प्रश्न कर रहा है? यह कितना विचित्र प्रश्न है कि हम जानवर की तरह खाएं या आदमी की तरह? सब एकदम अवाक् रह गए, उसकी ओर साश्चर्य एकटक देखने लग गये। किसी ने पूछा--'आप क्या कहना चाहते हैं?' 'महानुभावो! मैं यह कहना चाहता हूं कि जानवर उतना ही खाता है जितनी भूख होती है। आदमी ऐसा व्यक्ति है कि सामने बढ़िया चीज आए तो दुगुना-तिगुना भी खा जाता है। इसलिए मेरा प्रश्न है आज हम आदमी की तरह खाएंगे या जानवर की तरह?' जानवर में भी अपने हित का थोड़ा ज्ञान है। वह ज्यादा नहीं खाता। आदमी में पता नहीं क्या संज्ञा है कि वह अच्छी चीज को खाता चला जाता है। कुछ दिन पहले मैंने एक ऐसा कथन सुना जिस पर सहसा विश्वास नहीं होता। एक व्यक्ति ने बताया-दो आदमी बारात में खाने में बैठे और ६०० राजभोग खा गये। उस व्यक्ति ने कहा-'मैं वहीं खड़ा था। यह मेरा आंखों देखा सच है।' हम तो सोच भी नहीं सकते, कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिसको प्रेय का ही ज्ञान होता है, श्रेय का ज्ञान नहीं होता, अपने हित का ज्ञान नहीं होता, वह न जाने क्या-क्या कर डालता है। ___ 'प्रभव! तुम माता-पिता का ऋण चुकाने की बात केवल प्रेय की दृष्टि से कर रहे हो। मैं उनके श्रेय को भी देख रहा हूं।' जम्बूकुमार ने अपना वक्तव्य बहुत अच्छे ढंग से प्रस्तुत कर दिया। प्रभव बोला-'कुमार! तुम्हारी बात समझ में आ गई। केवल प्रेय के आधार पर नहीं, श्रेय के आधार पर भी कर्ज चुकाना चाहिए। यह बात गले उतर गई पर मेरे प्रश्न अभी भी शेष हैं। जब तक मेरे प्रश्नों का समाधान नहीं होगा तब तक संतोष कैसे होगा?' गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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