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________________ गाथा परम विजय की 'तुम यह जानते हो कि नुकसान होता है।' 'हां, जानता हूं पर जानते हुए भी छोड़ नहीं सकता।' जानामि धर्मं न च मे प्रवृत्तिः जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः मैं धर्म को जानता हूं पर धर्म का आचरण नहीं करता। अधर्म को जानता हूं पर उससे दूर नहीं हटता। केवल जानने से क्या होगा? जानते हैं, छोड़ नहीं पाते तो क्या लाभ होगा? एक नशे की प्रवृत्ति आई और सब बुराइयां स्वतः आने लग जाती हैं। एक गृहस्थ के लिए धन वैसे तो उपयोगी होता है। जितना अच्छा जीवन जीने के लिए आवश्यक हो, उतना धन तो एक सामाजिक प्राणी चाहता है। ज्यादा धन बढ़ता है तो विकृति आनी शुरू हो जाती है, क्रूरता आनी शुरू हो जाती है। क्रूरता और धन का तो अनुबंध जैसा बना हुआ है। इसीलिए वर्तमान समाज को ज्यादा जागरूक रहने की जरूरत है। माता-पिता और अभिभावक यह ध्यान दें कि आज के बच्चों पर, आज के युवकों पर थोड़ा अंकुश रहे। उन्हें एकदम खुला न छोड़ें। उनमें खान-पान की शुद्धि रहे। ____ भगवान महावीर ने खान-पान की शुद्धि पर बहुत बल दिया। उनका तो प्रसिद्ध सूत्र रहा-आहारमिच्छे मियमेसणिज्ज–भोजन कैसा करो? मित भोजन करो और वह भी एषणीय। गृहस्थ के लिए निर्देश रहाअवांछनीय मत खाओ, अभक्ष्य को मत खाओ। आज दुनिया में शाकाहार का आंदोलन चल रहा है। लाखों-लाखों मांसाहारी आदमी मांस को छोड़ रहे हैं। क्यों छोड़ रहे हैं? धर्म की दृष्टि से नहीं छोड़ रहे हैं। उनको यह पता लग गया है कि मांस खाने से स्वास्थ्य खराब होता है। स्वास्थ्य के लिए शाकाहार जितना अनुकूल है, उतना कोई दूसरा आहार नहीं है। वे मांस छोड़ रहे हैं स्वास्थ्य की दृष्टि से। जिनको धर्म की दृष्टि प्राप्त है, वे लोग इस बारे में कम सोचते हैं। ___ यह शाकाहार का जो प्रचलन हुआ, मांसाहार का जो निषेध हुआ वह महावीर की विचार-क्रांति का स्फुलिंग है। मांसाहार को छुड़ाने में भगवान महावीर का सबसे ज्यादा कर्तृत्व रहा है। दूसरे धर्म संप्रदाय के कुछ लोग मांस खाते थे, बौद्ध भिक्षु भी मांस खाते थे किन्तु महावीर ने एक ऐसा वर्ग तैयार किया, जो पूर्णतः शाकाहारी था। लगभग पांच लाख श्रावक, जो बारहव्रती थे, शाकाहारी थे। जो बारह व्रतों को धारण करते, वे कभी मांसाहार नहीं करते। भगवान महावीर ने एक व्रती समाज तैयार किया। आज की भाषा में कहूं तो एक ऐसा कम्यून तैयार किया था जिसका खान-पान, रहन-सहन सारी जीवनशैली अलग प्रकार की थी। आज जैन श्रावक के सामने भी यह प्रश्न है कि वह बारह व्रतों का कितना मूल्यांकन करता है। आज तो ऐसा लगता है कि जैन धर्म पारिवारिक ज्यादा बना हुआ है। पारिवारिक यानी परम्परा से धर्म के अनुयायी हैं। उनमें तत्त्वज्ञान का विकास नहीं है। तत्त्वज्ञान बहुत जरूरी है। पहले तो छोटे-छोटे बच्चों को पचीस बोल सिखा दिया जाता, चर्चा सिखा दी जाती, तेरह-द्वार सिखाया जाता। थोड़ा तत्त्वज्ञान होता है तो बुराई में कम जाते हैं। जिसको तत्त्व का ज्ञान नहीं है, जो तत्त्व को जानता नहीं है, उसके लिए तो फिर कोई अंकुश ही नहीं है। जिसने पचीस बोल को सीखा है, पढ़ा है उसे यह पहला बोल याद है-गति चार है नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। सबसे पहले नरक का ही नाम आया है। यह तथ्य सामने रहे कि ऐसा आचरण मत करो जिससे नरक गति में जाना पड़े। ॥
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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