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________________ गाथा परम विजय की ४० कोई व्यक्ति जाए और रास्ता भूल जाए तो बहुत समस्या होती है। उस समय कोई व्यक्ति मिले, रास्ता बता दे तो वह कृतज्ञता के स्वर में कहता है- आपने कृपा की, मुझे रास्ता बता दिया। वह साधुवाद देता है, धन्यवाद देता है, कृतज्ञता प्रकट करता है। यह एक शिष्टाचार है। शिष्ट समाज का यह आचार होता है कि कोई उपकार करे तो उसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करें। जो कृत उपकार की विस्मृति करता है, उस पर ध्यान नहीं देता, वह अच्छा नहीं होता । कृतज्ञता विकास और शिष्टता का एक लक्षण है। आठों कन्याएं एक मार्ग पर जा रही थीं, उनका मार्ग बदल दिया, दिशा बदल दी, दृष्टि बदल दी । बहुत बड़ी बात है दिशा और दृष्टि का परिवर्तन । दृष्टि और दिशा- ये दो बदले तो नजरिया भी बदल गया और नजारा भी बदल गया। अब तक जिस रूप में विश्व को देख रही थीं, उसको देखने का कोण भी बदल गया। जिस संसार को बहुत बढ़िया मान रही थीं, जो बहुत अच्छा लग रहा था अब लग रहा है कि वह फीका-फीका है, उसमें सार नहीं है। सार है तो आत्मानुभूति में ही है। दृष्टि बदलते ही सृष्टि बदल गई। अब तक वातावरण में एक ऊष्मा और उत्तेजना थी, वह समरसता में परिवर्तित हो गई। वाद-विवाद का स्थान सहमति और संवाद ने ले लिया। दो विरोधी दिशाओं में सोचने और चलने वाले उस मिलन-बिन्दु पर पहुंच गए, जहां से उनकी सहयात्रा प्रारंभ होनी थी। अब उनका गंतव्य और लक्ष्य भी एक था। जम्बूकुमार और आठों पत्नियों की संगोष्ठी अभी भी चल रही थी किन्तु उसमें एक नया मोड़ आ गया। समुद्रश्री ने भाव भरे स्वर में कहा - 'बहनो! हमें स्वामी को साधुवाद देना चाहिए, जिन्होंने भोग के दलदल में फंसने से पहले ही जागरूक कर दिया, उस दलदल से बाहर खींच लिया।' पद्मश्री ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा - 'स्वामी ! हमने क्या सोचा था और क्या हो गया ?' २७६
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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