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________________ गाथा परम विजय की पूज्य गुरुदेव ने गुजरात की यात्रा की। हम कच्छ की ओर जा रहे थे। बीच में कच्छ का रण आया, हम रण में थोड़ी दूर गये, देखा तो लगा-आगे तो तालाब है, पानी ही पानी है। प्रश्न हुआ-आगे कैसे जाएंगे? फिर ध्यान आया—यह तो रण है। केवल ग्रंथों में पढ़ा था मृग मरीचिका । हिरण जब रण में जाता है, ताल में जाता है तो उसे आगे पानी ही पानी दिखाई देता है। वह पानी पीने के लिए दौड़ता है। वहां पहुंचता है तो उसे पूरा क्षेत्र सूखा मिलता है, तालाब आगे सरक जाता है। ऐसे दौड़ते-दौड़ते प्यासा हिरण प्राण दे देता है पर पानी की एक बूंद भी उसे पीने को नहीं मिलती। हमने भी कच्छ की यात्रा में यह अनुभव किया - जैसे-जैसे आगे जाते, तालाब आगे सरकता चला जाता। दस-पंद्रह किलोमीटर का रण पार किया पर पानी की एक बूंद भी कहीं नहीं मिली । यह मृग मरीचिका है। 'प्रिये! क्या तुम इंद्रियों की मृग मरीचिका में 'नहीं स्वामी!' 'उलझाना चाहती हो ?' ‘प्रिये! क्या तुम स्वयं उस मृग मरीचिका से उलझना चाहती हो, जिसमें फंसने के बाद आदमी फंसता ही चला जाता है, कहीं उसका अंत नहीं आता।' 'नहीं स्वामी!' 'प्रिये ! तो फिर शुभ और श्रेयस कार्य में देरी क्यों करें?' ‘हां, स्वामी!’ 'प्रिये! तुम देखो - रात भी काफी चली गई है। अब तुम तैयार हो जाओ। प्रभात होते ही हमें मुनि बनना है।' 'स्वामी! इतना जल्दी निर्णय क्यों ?' 'प्रिये! जब तुम सबने यह निर्णय ले लिया है कि हमें साध्वी बनना है तो फिर क्यों विलंब करें ?' 'स्वामी! आपकी बात सही है। हमें मुनि बनना है, सचाई के मार्ग पर चलना है। इस कूपमण्डूकता को छोड़कर, विषय की संकरी पगडंडी को छोड़कर राजपथ पर चलना है। परन्तु....' 'प्रिये! फिर परन्तु क्या है?' ‘स्वामी! आप सोचें। आपके माता-पिता हैं, हमारे भी माता-पिता हैं। दो हमारे सास और श्वसुर हैं, सोलह आपके श्वसुर-सास हैं। अब उन सबको बताना और समझाना जरूरी है। ' ‘स्वामी! हमने जो पाणिग्रहण किया वह साधु बनने के लिए नहीं किया, घर बसाने के लिए किया। अब हम जो गृहत्याग का निर्णय कर रहे हैं उसमें उनकी प्रसन्नमना सहमति और स्वीकृति न हो जाए तब तक बात कैसे बनेगी?' 'प्रिये! तुम्हारी बात ठीक है किन्तु मैंने संकल्प ले लिया था कि सूर्योदय के पश्चात् मैं घर में नहीं रहूंगा। मेरा यह मत है कि निर्णय में शिथिलता नहीं होनी चाहिए। जो निर्णय जिस समय करना है उसी समय होना चाहिए। विलम्ब हुआ, प्रमाद हुआ तो समस्या उलझ जाएगी। देखो, मैं तुम्हें एक बात बताऊं।' २७७
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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