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________________ रूपश्री जम्बूकुमार को समझाने के लिए उद्यत हुई। उसने कहा- स्वामी! मैं सबसे पहले क्षमा मांगती हूं। क्योंकि मैं जो कहूंगी वह शायद आपको प्रिय नहीं लगेगा।' 'रूपश्री! तुम क्या कहना चाहती हो ?' 'स्वामी! मैंने आप जैसा अहंकारी आदमी नहीं देखा। आपमें इतना अहंकार है कि आप किसी की बात पर ध्यान नहीं देते, किसी की सलाह को मानते नहीं हैं। क्या अकेला आदमी ही समझदार होता है। दुनिया में? दूसरे भी तो रोटी खाते हैं, पानी पीते हैं, दूसरों में भी समझ है। स्वामी! ऐसा लगता है कि सारी समझदारी का ठेका आपने ले लिया है।' 'स्वामी! आपका अनुभव परिपक्व नहीं है। अभी आप बहुत छोटे हैं। आपकी अवस्था भी क्या है?' 'स्वामी! मैं आपको एक नीति की बात बताऊं ?' 'प्रिये! मैं अवधानपूर्वक सुनूंगा तुम्हारा मंतव्य ।' 'स्वामी! नीतिकार ने कितना अच्छा लिखा है--- २५२ गुणिनामपि निजरूपप्रतिपत्ति परतः एवं संभवति । स्वमहिमदर्शनमक्षोः मुकुरतले जायते यस्मात्।। स्वामी! कितना ही गुणी आदमी है पर वह अपने आपको जानना चाहता है तो उसे दूसरों का सहारा लेना पड़ेगा। दूसरे लोग बताएंगे कि आपके भीतर कौन से गुण हैं। व्यक्ति यह स्वयं नहीं जान सकता।' 'स्वामी! नीतिकार ने कितना सुंदर दृष्टान्त दिया है - आंख सबको देखती है पर जब आंख यह सोचे कि मुझे अपने आपको देखना है तो क्या वह स्वयं को देख पायेगी ? सबको देखने वाली आंख को जब अपने आपको देखना है तो उसे शीशे के सामने जाकर खड़ा होना होगा। दर्पण यह दिखा देगा कि तुम कैसी हो? वह स्वयं अपने आपको नहीं देख सकती। ' 'स्वामी! आप भी अपने आपको पहचान नहीं रहे हैं। आप कैसे हैं-इसे दूसरे अधिक बता सकते हैं। पर समस्या यह है कि आप दूसरों की बात मान नहीं रहे हैं। ' 'स्वामी! बात कड़वी है पर बहुत सच है । मैं कहूं या न कहूं?” 'प्रिये! अवश्य कहो। सच को क्यों छिपाना चाहिए?' 'स्वामी! पुरुष के लिए बहत्तर कलाएं और स्त्री के लिए चौसठ कलाएं होती हैं पर ऐसा लगता है कि आप चौहत्तर कलाएं पढ़ गये हैं। आपने दो कलाएं अधिक पढ़ ली हैं।' m गाथा परम विजय की w र
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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