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________________ क 40 ) ६).. • ( गाथा परम विजय की किन्तु क्या सब उसका समीचीन हार्द समझ पाते हैं? अर्थ समझने में बड़ा अंतर रह जाता है। कहा कुछ जाता है और समझ कुछ और लिया जाता है। जैन साहित्य में तीन प्रकार की परिषद् का उल्लेख मिलता है-ज्ञ-परिषद, अज्ञ-परिषद् और दुर्विदग्ध परिषद्। ज्ञ-परिषद् तो बात को ठीक समझ लेती है। अज्ञ परिषद् सम्यक् समझ नहीं पाती। दुर्विदग्ध परिषद् कथ्य का विपरीत अर्थ लगा लेती है। सरदारशहर की घटना है। गुरुदेव प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन में सहज प्रसंग आया कि दो अंगुली की यह मुद्रा रहे। अनेक लोगों ने उसका सम्यक् अर्थ ग्रहण किया। श्रोताओं में पीछे कोई सटोरिया बैठा था। उसने समझ लिया कि आज दो के अंक पर सट्टा लगाना है। यह असमीचीन अर्थ का ग्रहण है। ___समझने की अपनी अपनी दृष्टि होती है इसलिए एक ही वाक्य के भिन्न-भिन्न अर्थ लगाए जाते हैं। यही कारण है कि विचारों में भेद रहता है। चिंतन की पृष्ठभूमि में रहता है भाव। यदि भावात्मक संवेदन एक जैसा बन जाए तो चिन्तन और भाषा में दूरी सिमट जाती है। जम्बूकुमार और कनकश्री के भावों की दिशा एक नहीं है इसीलिए उनके दृष्टिकोण में अंतर बना हुआ है। कनकश्री के तर्क से असहमति का कारण भी यही है। जम्बूकुमार चाहता है जैसे पांच कन्याओं की भावधारा और चिन्तनधारा में परिवर्तन आया है, वैसे ही कनकश्री की भावधारा और चिन्तनधारा बदले। कनकश्री की अभिलाषा है-जम्बूकुमार त्याग की यशोगाथा बंद कर हमारी इच्छा का सम्मान करे। ___ जम्बूकुमार ने कनकश्री को संबोधित करते हुए कहा–'प्रिये! मैंने तुम्हारी बात बहुत गंभीरता से सुनी, तुमने काफी साफ बात कही, चिकनी-चुपड़ी बातें नहीं कही, सुगर कोटेड गोलियां नहीं दी। कटुक चिरायता जैसी कड़वी बात कही। तुम्हारी स्पष्टवादिता से मैं बहुत खुश हूं। तुमने कहा मैं जिद्दी हूं, आग्रही हूं। मैं भी स्वीकार करता हूं कि आग्रह मुझ में है पर आग्रह इस बात का है कि मैं कर्जदार बनना नहीं चाहता, दूसरे के ऋण पर जीना नहीं चाहता और मैं चोर बनना नहीं चाहता। मेरा यह आग्रह सत्य का आग्रह है कि मैं कर्जदार नहीं बनूंगा और चोर नहीं बनूंगा।' ___ प्रिये! तुम जानती हो-जो चोर होता है, चोरी करता है वह बहुत दुःखी होता है। जो सिर पर कर्जा ले लेता है, उसको चुकाना पड़ता है। कर्जदार के दुःख का कोई पार नहीं होता। वह उसी प्रकार दुःखी होता है, जिस प्रकार चारक नाम का एक व्यक्ति हुआ था।' कनकश्री ने जिज्ञासा की 'स्वामी! कौन था वह चारक? वह कैसे कर्जदार बना? उसने कैसे चोरी की? यह बात मुझे बताएं तो मैं चिंतन करूंगी आपकी बात पर।' । २४५
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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