SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा परम विजय की आग्रह और अनाग्रह-ये दो शब्द हैं। कुछ लोग कहते हैं-आग्रह नहीं होना चाहिए। अनाग्रह भाव का विकास होना चाहिए। दूसरा स्वर यह है-अनाग्रह से काम नहीं चलता। आग्रह भी होना चाहिए। अगर सत्याग्रह नहीं है, सत्य का आग्रह नहीं है तो आदमी फिसल जायेगा। व्यक्ति ने संकल्प लिया मैं यह काम नहीं करूंगा। यदि वह कहे कि मैं तो अनाग्रही हूं तो कल ही फिसल जायेगा। वह कहेगा-'मैंने संकल्प ले लिया, पर मेरा कोई आग्रह नहीं है। आप कहें तो मैं संकल्प तोड़ दूं।' यह अनाग्रह भी आदेय नहीं है। आग्रह और अनाग्रह-दोनों को ठीक से समझना जरूरी है। यह विवेक जरूरी है कि कहां आग्रह होना चाहिए और कहां नहीं? जहां मन की वृत्तियां मलिन बनती हैं, राग-द्वेष बढ़ता है, शत्रुता बढ़ती है, वहां आग्रह नहीं होना चाहिए किन्तु जो संकल्प, प्रतिज्ञा और व्रत स्वीकार किया है, जहां अच्छे मार्ग पर चलने की बात है, वहां आग्रह होना चाहिए। जहां सचाई और सदाचार का प्रश्न है, वहां आग्रह होना चाहिए। यदि यह आग्रह नहीं होता तो आचार्य भारमलजी तेरापंथ में नहीं मिलते, तेरापंथ के आचार्य नहीं होते। आचार्य भिक्षु ने मुनि किसनोजी को साथ रखने में असमर्थता व्यक्त की। किसनोजी ने कहा-'यदि आप मुझे नहीं रखेंगे तो मैं भारमल को अपने साथ ले जाऊंगा।' आचार्य भिक्षु ने कहा-'भारमल जैसा उपयुक्त समझे वैसा करने के लिए स्वतंत्र है।' भारमलजी से पिता किसनोजी ने कहा-'तुम मेरे साथ चलो। तुम यहां नहीं रह सकते।' मुनि भारमलजी बोले-'नहीं, मैं यहीं रहूंगा।' यह आग्रह ही तो था। सत्याग्रह शब्द कब चला, यह पता नहीं किन्तु सत्याग्रह का पहला प्रयोग संभवतः आचार्य भारमलजी ने किया। पिता ने बहुत दबाव दिया, भारमलजी तैयार नहीं हुए। पिता बलपूर्वक हाथ पकड़ कर ले गए। भारमलजी ने संकल्प कर लिया-'जब तक आप आचार्य भिक्षु को नहीं सौंपेंगे, तब तक आपके हाथ से २३८
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy