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________________ ___ प्रियतम! मेरा तो यही अनुरोध है कि आप अवसरज्ञ बनो। स्वामी! मैं यह नहीं कहती कि आप भोले हैं, समझदार नहीं हैं। मैं आक्षेप करना नहीं चाहती, आरोप लगाना नहीं चाहती। पर एक बात तो मुझे विवश है होकर कहनी पड़ेगी कि आप अवसर के जानकार नहीं हैं। आप बार-बार कहते हैं-मैंने महावीर की वाणी सनी है पर मुझे लगता है कि आपने महावीर की वाणी ध्यान से नहीं सुनी। यदि सुनी है तो वह आपके भीतर उतरी नहीं है।' 'प्रियतम! महावीर ने तो कितना सुन्दर सूत्र दिया था बलं थामं च पेहाए सद्धा मारोगमप्पणो। खेत्तं कालं च विण्णाय तहप्पाणं निझुंजए।। किसी काम में अपने आपको नियोजित करो तो पहले इतनी चीजें देखोबलं मेरे शरीर का बल कैसा है। थाम मेरी प्राणशक्ति कैसी है? सद्धा-मेरी श्रद्धा कैसी है? अंतर की इच्छा, श्रद्धा घनीभूत हो। जिस श्रद्धा से मैं काम को स्वीकार करूं, उसको पूरा निभाऊं जाए सद्धाए निक्खंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं। तमेव अणुपालेज्जा, गुणे आयरियसम्मए।। यह महावीर का वचन है-जिस श्रद्धा से अभिनिष्क्रमण करो, उसका बराबर पालन करो। गाथा चौथी बात है-अपना आरोग्य देखो, अपना स्वास्थ्य देखो। मेरा स्वास्थ्य कैसा है? क्षेत्र और काल को देखो। इस षट्क पर ध्यान दो-बल, स्थाम, श्रद्धा, आरोग्य, क्षेत्र और काल-इन सबकी विवेचना कर कोई जाम करोगे तो सफल बनोगे। यह एक अवसर की व्याख्या है।' ___ 'प्रियतम! अभी आपने अवसर को नहीं देखा, अपने शरीर के बल को भी नहीं देखा। इतने सुकोमल और सुकुमार हो, कम से कम अपनी शक्ति को तो तौलना चाहिए। आप मुनि बनने की बात कर रहे हो पर नि बनने के योग्य आपका शरीर ही नहीं है। आप कैसे मुनि बनेंगे? आपने श्रद्धा को भी नहीं देखा। मुझे हीं लगता कि इतने कोमल शरीर की श्रद्धा भी इतनी मजबूत होती है। खेत्तं कालं च विण्णाय-न क्षेत्र पयुक्त देखा और न काल उपयुक्त देखा। अभी तो एक फूल खिला है, यौवन का उभार आ रहा है, यौवन । दहलीज पर खड़ा है और आप साधु बनने की बात करते हो? साधु तो वह बने, जिसने पचास-साठ वर्ष र कर लिए, संसार का अनुभव कर लिया, गृहस्थी को चला लिया फिर अवसर आता है साधु बनने का। गा यह कोई अवसर है? अभी तो आपको कुछ पता ही नहीं है। आप कुछ नहीं जानते, इसलिए मेरी यह त बिल्कुल ठीक है-आप और सब कुछ हो सकते हैं पर आप अवसरज्ञ नहीं हैं, अवसर के जानकार नहीं कौन-सा काम कब करना चाहिए? किस क्षेत्र में करना चाहिए? किस समय में करना चाहिए? किस वस्था में करना चाहिए?-इन सारे तथ्यों को जो नहीं जानता, उसे क्या कहा जाए?' परम विजय की Anm
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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