SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 4) ) ६) . ( प्रख्यात हुआ। मुझे कुछ नहीं मिला और मेरा भाई मालामाल हो गया। उसे धन, यश और प्रतिष्ठा सब कुछ मिल गए। जम्बूकुमार ने कथा का उपसंहार करते हुए पूछा-'पद्मसेना! बताओ कौन ठगा गया? किसने किसको ठगा? क्या विद्याधर ने विद्युत्माली को ठगा? मेघमाली ने विद्युत्माली को ठगा?' 'स्वामी! विद्युत्माली स्वयं अपनी वृत्तियों के कारण ठगा गया।' 'पद्मसेना! जैन आगम कहते हैं-अप्पा अप्पाणं वंचए-अपनी आत्मा ही अपने आपको ठगती है। दुनिया में कोई किसी को नहीं ठगता। अगर अपनी आत्मा अप्रमत्त है, जागरूक है, सावधान है तो किसी में ठगने की ताकत नहीं है। अपना आलस्य, अपना प्रमाद, अपनी शिथिलता, अपनी मूर्खता व्यक्ति को ठगती है। मेरा निश्चित विश्वास है कि कोई किसी को नहीं ठगता। तुमने जो आरोप लगाया है-गुरु ने तुमको ठग लिया वह सही नहीं है। मुझे कोई नहीं ठग सकता। विद्युत्माली जैसे व्यक्ति को कोई अवश्य ठग सकता है जिसका अपने आप पर नियंत्रण नहीं है, अपने आप पर अनुशासन नहीं है। जो आत्मानुशासन करना जानता है, अप्पा अप्पाणं सासए-आत्मा से आत्मा को शासित करता है उसको कोई नहीं ठग सकता। जो अपना अनुशासन करना स्वयं नहीं जानता, वह ठगा जाता है। इसलिए तुम्हारा यह आरोप सही नहीं है कि किसी ने मुझे ठगा है।' 'पद्मसेना! मैंने मेघमाली की तरह साधना के सूत्र को समग्रता से पकड़ा है। मैं विद्युत्माली जैसा गाथा मूर्ख नहीं हूं कि कोई मुझे ठग ले। मैं मेघमाली जैसा दृढव्रती हूं इसलिए यह संभव हैजो गुरु ने कहा, जो परम विजय की विद्याधर ने कहा, उसका यथावत् पालन करना और सफलता की दहलीज पर पहुंच जाना। तुम मेघमाली से मेरी तुलना करो, विद्युत्माली से मत करो। यदि मैं पदार्थ में लुब्ध हो जाता, तुम्हारे भोग-आमंत्रण में लुब्ध हो जाता, आसक्त हो जाता तो तुम कह सकती थी कि मैं ठगा गया किन्तु मैं इन सबसे परे हूं इसलिए ठगाई का तो कोई प्रश्न ही ___ नहीं है।' ‘पद्मसेना! मैं पदार्थ को पदार्थ जानता हूं, भौतिकता को । भौतिकता जानता हं, काम को काम जानता हूं, भोग को भोग जानता हूं और आत्मा को आत्मा जानता हूं। मैं यह भी जानता हूं कि आत्मा का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है, पदार्थ का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। पदार्थ पदार्थ है और आत्मा आत्मा है। मैं आत्मा हूं पदार्थ नहीं हूं-मैं इस सचाई को जानता हूं। मेरे इस अध्यात्म अनुप्राणित वक्तव्य को तुम गहराई से समझो-आत्मा आत्मा है। तुम भी आत्मा हो, मैं भी आत्मा हूं। हम क्यों व्यर्थ इस शरीर के प्रपंच में फंस रहे हैं?'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy