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________________ एक बच्चे से पूछा-बोलो, तुम आज नाश्ते में क्या खाकर आये हो? वह बोला-आज मेरी बारी नहीं है। मैं समझ नहीं पाया। फिर वही प्रश्न पूछा और उत्तर भी वही मिला-आज मेरी बारी नहीं है। मैंने अध्यापक से , पछा-यह क्या उत्तर दे रहा है? शिक्षक ने बताया-जिलाधीश महोदय! यह बड़ा गरीब है। घर में दो बच्चे हैं। दोनों को रोज नाश्ता नहीं मिलता। एक बच्चे को एक दिन नाश्ता मिलता है, दूसरे बच्चे को दूसरे दिन नाश्ता मिलता है। ये भूखे आते हैं और पूरे दिन भूखे रहते हैं।' ____ यह दरिद्रता कितना बड़ा संकट है, कितनी बड़ी समस्या है। एक आदमी दरिद्रता से बहुत परेशान हो गया। एक दिन हाथ जोड़कर बोला रे दारिद्र्य! सुलक्खणा, मुझ इक बात सुणेह। म्हें परदेसां संचरा, तुम घर सार करेह।। 'दारिद्र्य! तुम मेरी एक बात सुनो। मैं परदेश जा रहा हूं। तुम घर की सार-संभाल करना, रखवाली करना।' दरिद्रता बोली-'यह कैसे होगा? सज्जन का संग छोड़ना ठीक नहीं है। तुम परदेश जाओगे तो मैं भी आगे तैयार मिलूंगी।' संचरवो सयणा तणो, छोडत नेह अयान। थे परदेसा संचरो, म्हैं पिण आगीवान।। वह बोला–'फिर परदेश जाने की जरूरत ही नहीं है। वहां जाकर मैं क्या करूंगा?' बड़ी समस्या है दरिद्रता। राजा भोज के समय का प्रसंग है। एक ब्राह्मण बहत दरिद्र था। दरिद्रता इतनी थी कि पर्याप्त भोजन भी सुलभ नहीं था। ब्राह्मण को एक दिन किसी यजमान ने ईख भेंट किए। उसने सोचा-आज अच्छा अवसर है। मैं यह ईख राजा भोज को भेंट करूंगा। इससे राजा प्रसन्न होगा और मुझे कुछ दे देगा, मेरी दरिद्रता मिट जायेगी, खाने की समस्या नहीं रहेगी। इस चिन्तन के साथ उसने राजा भोज से मिलने के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में जंगल था। वह चलता-चलता थक गया। सोचा-थोड़ा विश्राम कर लूं। वह वृक्ष की शीतल छांह में लेट गया। वस्त्र में बंधा ईख का गट्ठर सिरहाने लगाकर सो गया। उसे गहरी नींद आ गई। उसी समय उस जंगल से कुछ राहगीर गुजरे। उन्होंने देखा-पंडितजी! गहरी नींद में हैं। उनके सिरहाने ईख है। उन्होंने धीरे से ईख को निकाल लिया, उसके स्थान पर लकड़ियां बांधकर फिर सिरहाना दे दिया। वे ईख को चूसते हुए, इक्षु रस का आस्वाद लेते हुए आगे बढ़ गए। ब्राह्मण को कुछ पता नहीं चला। थोड़े समय बाद उसकी नींद टूटी। वह गट्ठर लेकर चला, राजा भोज की सभा में पहुंचा। यह मान्यता रही-राजा, देवता और गुरु के पास खाली हाथ नहीं जाना चाहिए, कुछ न कुछ भेंट करना चाहिए-रिक्तपाणिर्न पश्येत राजानं दैवतं गुरुं। बहुत बार हमारे पास भी लोग भेंट लेकर आते हैं। पूज्य गुरुदेव दिल्ली में विराज रहे थे। पति-पत्नी दर्शन के लिए आए, वंदना की। वंदना कर जेब से दस रुपया का नोट निकाला और पट्ट के पास रख दिया। गुरुदेव ने कहा-बहनजी! क्यों?' महाराज! यह छोटी-सी भेंट है आपके लिए।' २०८ गाथा परम विजय की
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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