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________________ गाथा परम विजय की पन्ना इतना बड़ा हो जाए तो उसका मूल्य कितना होगा। जवाहरात का काम करने वाले जानते हैं कि उसका कितना मूल्य हो जाता है। _ 'पद्मश्री! इतनी संपदा और वह सुख हमने भोगा है। अनेक बार उस दिव्य सुख को भोग लिया फिर भी न तो प्यास बुझी, न तृष्णा मिटी। क्योंकि यह एक शरीर की प्रकृति है। शरीर का धर्म यह है कि कामभोग की प्यास शरीर के साथ रहती है, कभी बुझती नहीं है।' 'ओह!' यह कहते हुए पद्मश्री के नयन विस्फारित हो उठे। ‘पद्मश्री! क्या तुम मनोविज्ञान को जानती हो?' 'प्रियतम! मनोविज्ञान क्या कहता है?' 'मनोविज्ञान कहता है-यह एक मौलिक मनोवृत्ति है, शरीर के साथ जुड़ी हुई प्रवृत्ति है। जब तक आदमी शरीर में रहता है तब तक उसकी यह स्थिति रहती है। शरीर से ऊपर उठ जाता है, आत्मा में चला जाता है तो उसकी स्थिति बदल जाती है।' प्रचाल्य विषयेभ्योऽहं, मां मयैव मयि स्थितम्। बोधात्मानं प्रपन्नोस्मि परमानन्दनिर्वृत।। ‘पद्मश्री! तुम जानती हो जब तक व्यक्ति शरीर में रहता है तब तक वह काम-भोग के सुखों से कभी विरत नहीं हो सकता। मैंने शरीर से ऊपर की यात्रा शुरू कर दी है इसलिए ये काम-भोग मुझे नहीं लुभाते। मैंने महावीर से प्रतिसंलीनता का पाठ पढ़ा है। इसका मतलब है-इंद्रियों को विषयों से निवृत्त कर दो, विषयों से हटा लो।' __प्रेक्षाध्यान में सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा का प्रयोग कराया जाता है। सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा का तात्पर्य है इंद्रियों के संपर्क सूत्रों से विच्छेद। दोनों कानों में अंगूठे डाल लो, दो तर्जनी अंगुलियों को आंख पर धीरे से रख दो। दो मध्यमा अंगुलियों से नाक बंद कर लो, शेष चार अंगुलियों से होठ बंद कर लो यह है सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा। इंद्रियां दरवाजे हैं। बाहरी जगत् के साथ हमारा संपर्क इंद्रियों के माध्यम से होता है। ___ जम्बूकुमार ने भावपूर्ण शब्दों में कहा–'पद्मश्री! मैंने इंद्रियों के दरवाजों को बंद करना सीख लिया, इसलिए बाहर की बात भीतर नहीं आती। मैं अपने घर में रहता हूं इसलिए मेरे मन में कोई चाह नहीं रही। चाह तब सताती है जब दरवाजे खुले रहते हैं। यदि दरवाजे खुले हैं तो चाह बनी रहेगी, चाह बढ़ती रहेगी। आंख ने अपना काम किया, चाह बढ़ जायेगी। कान ने अपना काम किया, चाह बढ़ जायेगी। चाह उत्पन्न होती रहती है, बढ़ती रहती है किंतु जब बाहर के सारे दरवाजे बंद हैं तो चाह का रास्ता भी बन्द हो जाता है। मैंने बाहर के सारे दरवाजे बंद कर दिए हैं। मैं केवल ज्ञाता-द्रष्टा हूं और परम आनन्द में हूं।' ___ 'पद्मश्री! जब तक परम आनंद की स्थिति नहीं आती तब तक यह चिंतन नहीं हो सकता। कोई भी व्यक्ति तब तक काम-भोग के सुखों को नहीं छोड़ सकता, जब तक कि उससे बड़ा सुख उसको न मिल जाए। जब तक अपनी अन्तर आत्मा में छिपा हुआ सुख का खजाना नहीं मिलता तब तक व्यक्ति इस छोटे खजाने को छोड़ नहीं सकता।'
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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