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________________ छोड़े Dima अच्चेइ कालो तूरंतिराइओ, न या वि भोगा पुरिसाण णिच्चा। उविच्च भोगा पुरिसं चयंति, दुमं जहा खीणफलं व पक्खी।। यह काल बीत रहा है, रात और जल्दी जा रही है। ये काम-भोग नित्य नहीं हैं। ये एक दिन तुम्हें छोड़ देंगे। जब तक वृक्ष फलवान है, पक्षी वृक्ष पर आकर बैठते हैं। फल लगे रहते हैं तो पक्षी वृक्षों पर मंडराते रहते हैं। फल समाप्त हो गए, वृक्ष सूख गया तो पक्षियों ने भी आना छोड़ दिया।' 'पद्मश्री! मैंने काम-भोग के स्वरूप को भी समझ लिया। काम-भोग का स्वरूप यह है आरंभे तापकान्, प्राप्ते अतृप्तिप्रतिपादकान्। अंते सुदुष्त्यजान् कामान्, कामं कः सेवते सुधीः।। पद्मश्री! क्या तुम जानती हो-काम-भोग की प्रकृति क्या है?' 'नहीं, प्रियतम!' 'पद्मश्री! आरंभे तापकान्–प्रारंभ में वे ताप देते हैं।' काम भोग सहज नहीं मिल जाते। कोई वस्तु सामने दिखती है, इच्छा होती है कि मुझे यह मिल जाये किन्तु वह सहजता से नहीं मिलती। प्रारंभ में वह ताप देती है। जब तक नहीं मिलती तब तक मन में यह ताप बना रहता है-यह वस्तु मुझे मिली नहीं। कब मिलेगी मुझे यह वस्तु? एक तनाव बना रहता है। प्रारंभ में तो काम तनाव देता है। 'प्राप्ते अतृप्तिप्रतिपादकान्–मिल जाता है तो तृप्ति नहीं होती। एक बार भोगा, फिर अतृप्ति। दूसरी बार भोगा तो और ज्यादा अतृप्ति। जैसे-जैसे सेवन करो, अतृप्ति बढ़ती चली जायेगी।' हम भोजन का उदाहरण लें। जिस मौसम में जो वस्तु आती है, उसके प्रति एक रुचि बन जाती है। चैत्र-वैशाख में आम का मौसम आता है। जब तक आम का मौसम नहीं तब तक कोई आकांक्षा नहीं। जैसे ही आम का मौसम आया, आम आने लगे, व्यक्ति ने आम खाना शुरू कर दिया। एक दिन आम खाया तो क्या तृप्त हो गये? दूसरे दिन फिर विकल्प आता है कि क्या आज आम नहीं आया? कभी-कभी अष्टमी, चतुर्दशी आ जाती है, हरियाली खाने का प्रत्याख्यान होता है तो मन में आता है कि आज आम नहीं खाया। सेवन करने से अतृप्ति बढ़ती चली जाती है। 'अंते सुदुष्त्यजान्-वह अतृप्ति इतनी बढ़ जाती है कि अंत में छोड़ना मुश्किल हो जाता है।' ‘पद्मश्री! मैं काम-भोग की इस त्रिगुणात्मक प्रकृति को जानता हूं। यह प्रारंभ में तनाव पैदा करता है और अंत में इसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है। जिस चीज को अंत में छोड़ना मुश्किल है और जो प्रारंभ में तनाव पैदा करती है, उसे मैं अपने जीवन में महत्त्व क्यों दूं? मैं ऐसा काम क्यों करूं, जिससे दिमाग में तनाव आए। मैं दिमाग को शांत रखना चाहता हूं, खाली रखना चाहता हूं, तनाव से भरना नहीं चाहता।' जम्बूकुमार ने इतना बड़ा एक रहस्यपूर्ण तत्त्व कहा, जिसका हर व्यक्ति अनुभव कर सकता है। एक वस्त की चाह मन में हो गई। वह जब तक नहीं मिलती तब तक तनाव बना रहता है। दिमाग में यह विचार उभरता रहता है मुझे वह मिला नहीं। औरों की बात छोड़ दें। जो साधु बन जाते हैं उनके मन में भी किसी चीज की चाह पैदा हो जाती है, चाहे वह अच्छी चाह है, किन्तु जब तक वह पूरी नहीं हो जाती तब तक थोड़ा तनाव तो होता ही है। गाथा परम विजय की १९२
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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