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________________ ‘समद्रश्री! मेरी सुख की मान्यता भौतिक पदार्थों की उपलब्धि से जुड़ी हुई नहीं है। मेरा सुख का सिद्धांत विलक्षण है। सुख वही है, जहां दूसरे की कोई अपेक्षा ही नहीं है, जो निरपेक्ष है। वह सुख, जहां . दूसरे की अपेक्षा हो, कैसा सुख होगा?' ____ प्रियतम! आपकी यह बात समझ से परे है। ऐसा लग रहा है, जैसे आप कोई पहेली बुझा रहे हैं। यह पहेली की भाषा हम कैसे समझ सकती हैं?' 'समुद्रश्री! तुम पहेली की भाषा नहीं समझ सकती। कहानी की भाषा तो समझ सकती हो।' 'हां प्रियतम! वह सरस होती है। उसकी बात सीधे गले उतर जाती है।' 'समुद्रश्री! तुमने मुझे एक कहानी सुनाई। मैं भी तुम्हें एक कहानी सुनाना चाहता हूं, जिससे मेरा मत समझ में आ जाए।' 'प्रियतम! सुनाइए। हमें भी कुछ बोध होगा।' 'समुद्रश्री! एक राजा को अपने राज्य का बड़ा गर्व था। वह सोचता था मेरा राज्य कितना बड़ा है, कितना अच्छा है। मेरे पास कितनी संपदा है। एक बार एक त्यागी, तपस्वी मुनि का योग मिल गया। मुनि ने राजा को कुछ वैराग्य की बातें बताई। राग की तो बातें सारी दुनिया में चलती हैं। वैराग्य की बात तो कोई मुनि साधक ही बता सकता है। यदि कोरा राग ही राग चले तो पता नहीं आदमी कहां चला जाए। थोड़ीथोड़ी वैराग्य की बातें सुनें तो कम से कम कुछ बचाव हो जाए।' राजा को अपनी राज्य संपदा का गर्व था। उसने कहा-'महाराज! मेरे पास कितनी सम्पदा है, कितना गाथा बड़ा राज्य है।' परम विजय की ___ मुनि बोले-राजन्! तुम्हारा राज्य और संपदा कितनी बड़ी है, मैं उसको देख रहा हूं। तुम्हारी जितनी सम्पदा है, धन है, वैभव है उसका मूल्य है दो गिलास पानी।' राजा इस मूल्यांकन से आहत हुआ, उसने हताश स्वर में कहा- 'महाराज! ऐसा मूल्यांकन आप करते हैं? यह बड़ा आश्चर्य है। ऐसा मूल्यांकन कौन करता है? मैं आपको एक घटना के द्वारा बताना चाहता हूं। एक व्यक्ति सवा लाख का हीरा लेकर साग-भाजी की बाड़ी में गया। उसने माली से कहा-यह लो, इसका मूल्य बताओ।' माली बोला-'दो मूली और दो गाजर।' फिर वह किसी कुम्हार के पास गया, पूछा-'इसका मूल्य बताओ।' कुम्हार बोला-'भाई! अच्छा तो लग रहा है। इसका मूल्य दो घड़ा हो सकता है। उसने वह किसी वस्त्र व्यवसायी को दिखाया, पूछा-'इसका मूल्य क्या है?' उसने कहा-'कपड़े के दो थान।' वह किसी जौहरी से मिला। उसने कहा-'इसका मूल्य तो बहुत है, यह सवा लाख का हीरा है।' 'महाराज! आपने कैसा मूल्यांकन किया है? आपने उस माली, कुम्हार और दुकानदार की तरह मूल्यांकन कर दिया कि मेरे राज्य और सम्पदा का मूल्य है दो गिलास पानी। यह कैसे किया आपने? मैं नहीं समझ सका आपकी बात को।' मुनि ने राजा की बात का प्रतिवाद नहीं किया। बातचीत आगे बढ़ी। मुनि ने कहा-'राजन्! तुम एक बार वन-यात्रा के लिए गए। संयोग ऐसा मिला कि तुम्हारा सारा परिकर पीछे रह गया। जेठ का महीना। तपती धूप। भयंकर लू का प्रकोप। पानी पास में रहा नहीं। कंठ सूखने लगे। प्यास के कारण भयंकर १८०
SR No.034025
Book TitleGatha Param Vijay Ki
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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